Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[बृहत्कल्पसूत्र पर मिल जाए तो आवश्यकता न रहने पर लौटा देना चाहिये। २८-३२ साधु-साध्वी उपाश्रय में, शून्य गृह में या मार्ग आदि में कहीं पर भी आज्ञा लेकर
ठहरे हों और उनके विहार करने के पूर्व ही दूसरे साधु विहार करके आ जाएँ तो वे उसी पूर्वगृहीत आज्ञा से वहां ठहर सकते हैं किन्तु नवीन आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं होती। यदि शून्य गृह का कोई स्वामी प्रकट हो जाए तो पुनः उसकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है। ग्रामादि के बाहर सेना का पड़ाव हो तो भिक्षा के लिये साधु-साध्वी अन्दर जा सकते हैं, किन्तु उन्हें वहां रात्रिनिवास करना नहीं कल्पता है। रात्रिनिवास करने पर गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। साधु-साध्वी जिस उपाश्रय में ठहरे हों, वहां से किसी भी एक दिशा में अढाई कोस
तक गमनागमन कर सकते हैं, उससे अधिक नहीं। उपसंहार
इस उद्देशक मेंसूत्र १-२ साधु-साध्वियों को एक-दूसरे के उपाश्रय में बैठने आदि के निषेध का,
चर्म ग्रहण के कल्प्याकल्प्य का, ७-१०,१३, १६,१७ वस्त्र-ग्रहण के कल्प्याकल्प्य का, ११-१२ गुप्तांग आवरक वस्त्रों के कल्प्याकल्प्य का, १४-१५ ___ दीक्षा-समय ग्रहण करने के कल्पनीय उपकरणों का, १८-२० दीक्षापर्याय के क्रम से वन्दन आदि का, २१-२३ गृहस्थ के घर बैठने या वार्तालाप आदि के कल्प्याकल्प्य का, २४-२७ शय्या-संस्तारक सम्बन्धी विधियों का, २८-३२ नये आये साधुओं को पूर्वाज्ञा में ठहरने का,
सेना के पड़ाव वाले ग्रामादि से भिक्षा लाने का, उपाश्रय के गमनागमन के क्षेत्रावग्रह, इत्यादि विभिन्न विषयों का वर्णन है।
॥ तीसरा उद्देशक समाप्त॥