Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम उद्देशक]
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तुम्हारे ये वस्त्र-पात्रादि तुम्हें वापस लौटा दिए जायेंगे', इस प्रकार से कहकर ग्रहण करने को साकारकृत' ग्रहण करना कहा जाता है। यदि वह साधु 'साकारकृत' न कहकर उसे ग्रहण करता है और अपने उपयोग में लेता है तो गृहस्थ के द्वारा दिये जाने पर ही वह चोरी का भागी होता है और प्रायश्चित्त का पात्र बनता है। इसका कारण यह है कि गोचरी के लिये आचार्यादि से आज्ञा लेकर जाने पर आहार ग्रहण की ही आज्ञा होती है, अतः वस्त्रादि के लिये स्पष्ट कह कर अलग से आज्ञा लेना आवश्यक है।
साधु जिस वस्तु की आज्ञा लेकर जाता है वही वस्तु ग्रहण कर सकता है। अन्य वस्तु लेने के लिए गृहस्थ द्वारा कहने पर या आवश्यकता ज्ञात हो जाने पर आचार्यादि की स्वीकृति के आगार से ही ले सकता है। यदि वस्त्र आदि की आज्ञा लेकर गया हो तो 'साकारकृत' लेना आवश्यक नहीं होता है।
सूत्र-पठित 'उवनिमंतेज्जा' पद की निरुक्ति करते हुए कहा गया है कि 'उप-समीपे आगत्य निमंत्रयेत्।' अर्थात् भिक्षा के लिये आये हुए साधु को दाता कहे कि आप इस वस्त्र या पात्रादि को स्वीकार करें।' तब साधु उससे (खासकर गृहस्वामिनी से) पूछे कि-'यह वस्त्रादि किसका है और कैसा है अर्थात् कहां से और क्यों लाया गया है?'
इन दो प्रश्नों का सन्तोषकारक उत्तर मिलने पर पुनः तीसरा प्रश्न करे कि-'मुझे क्यों दिया जा रहा है?'
यदि उत्तर मिले कि-'आपके शरीर पर अति जीर्ण वस्त्र हैं, या पात्रादि टूटे-फूटे दिख रहे हैं, अतः आपको धर्मभावना या कर्तव्य से प्रेरित होकर दिया जा रहा है। तब उसे 'साकारकृत' (आगार के साथ) ले लेवे। यदि सन्तोषकारक उत्तर न मिले तो न लेवे।
नियुक्तिकार ने उक्त तीनों बातों को पूछने का अभिप्राय यह बताया है कि पहले दो प्रश्नों से तो उनकी कल्पनीयता ज्ञात हो जाती है और तीसरे प्रश्न से दातार के भाव ज्ञात हो जाते हैं।
यदि साधु बिना पूछे ही उस दिये जाने वाले वस्त्रादि को ग्रहण करता है और घर का पति, देवर या अन्य दासी-दास आदि चुपचाप दिये और लिये जाने को देखता है तो देने और लेने वाले के विषय में वह अनेक प्रकार की आशंकाएं कर सकता है कि-'हमारे घर की इस स्त्री का और साधु का कोई पारस्परिक आकर्षण प्रतीत होता है अथवा इसके सन्तान नहीं है, अतः यह साधु से सन्तानोत्पत्ति के विषय में कोई मन्त्र, तन्त्र या भेषज प्रयोग चाहती है।' इस प्रकार की नाना शंकाओं से आक्रान्त होकर वह स्त्री की, साधु की या दोनों की ही निन्दा, मारपीट आदि कर सकता है।
यदि घर के किसी व्यक्ति ने ऐसी कोई बात नहीं देखी-सुनी है और देने वाली स्त्री सन्तानादि से हीन होने के कारण साधु से किसी विद्या, मन्त्रादि को चाहती है तो उस दी गयी वस्तु को लेकर चले जाने पर वह उपाश्रय में जाकर पूछ सकती है कि –'मुझे अमुक कार्य की सिद्धि का उपाय बताओ।'
अथवा वह स्त्री यदि प्रोषितभर्तृका है या कामातुरा है या उपाश्रय में जाकर अपनी दूषित भावना को पूर्ण करने के लिए भी कह सकती है। उसके ऐसा कहने पर साधु मन्त्रादि के विषय में तो यह उत्तर दे कि-'गृहस्थों के लिए निमित्त (मन्त्रादि) का प्रयोग करना हमें नहीं कल्पता है।'
कामाभिलाषा प्रकट करने पर कुशीलसेवन के दोष बताकर कहे कि-'हम संयमी हैं, ऐसा