Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीसरा उद्देशक]
[१८५ को शय्या-संस्तारक के लिए स्थान ग्रहण करना चाहिए।
यहां इतना और विशेष बताया गया है कि नवदीक्षित या अल्प आयु वाले साधु को रत्नाधिक साधु के समीप सोने का स्थान देना चाहिए, जो रात में उसकी सार-सम्भाल कर सके।
__इसी प्रकार वैयावृत्य करने वाले साधु को ग्लान साधु के समीप स्थान देना चाहिए, जिससे वह रोगी साधु की यथासमय परिचर्या कर सके।
तथा शास्त्राभ्वास करने वाले शैक्ष साधु को उपाध्याय आदि, जिसके समीप वह अध्ययन करता हो, के पास स्थान देना चाहिए जिससे कि वह जागरण काल में अपने पाठ-परिवर्तनादि करते समय उनसे सहयोग प्राप्त कर सके। यथारनाधिक कृतिकर्म करने का विधान
२०. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए। २०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से वन्दन करना कल्पता है।
विवेचन-प्रातः सायंकाल आदि समयों में प्रतिक्रमण आदि प्रारम्भ करने से पूर्व गुरु एवं रत्नाधिकों का जो विनय, वन्दन आदि किया जाता है, उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं। इसके दो भेद हैंअभ्युत्थान और वन्दनक।
आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों के एवं जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हैं, उनके गमन-आगमन काल में उठकर खड़े होना 'अभ्युत्थान कृतिकर्म' है।
प्रातःकाल, सायंकाल एवं प्रतिक्रमण करते समय तथा किसी प्रश्न आदि के पूछते समय गुरुजनों को वन्दन करना, हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर नमस्कार आदि करना 'वन्दनक कृतिकर्म' है।
भाष्यकार ने कहा है कि यथाजात बालक के समान सरल भाव से प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त करते हुए मस्तक से पंचांग नमस्कार करना चाहिए।
प्रदक्षिणा देने की तरह दोनों हाथ संयुक्त करके घुमाने को 'आवर्त' कहते हैं। शुद्ध मन, वचन, काया से भक्ति प्रकट करने के लिये ये आवर्त किये जाते हैं।
चारों दिशाओं में आवर्त करने का अभिप्राय यह है कि उस-उस दिशा में जहां पर जो भी पंच परमेष्ठी, गुरुजन एवं रत्नाधिक साधु विद्यमान हैं, उन्हें भी मैं त्रियोग की शुद्धि एवं भक्ति से वन्दन एवं नमस्कार करता हूँ। इसी प्रकार गुरुजनों के समीप आने पर भी साधु और साध्वियों को दीक्षापर्याय के अनुसार उन्हें वन्दन करना चाहिए।
इस कृतिकर्म के विषय में सम्प्रदाय-भेद से अनेक प्रकार की व्याख्याएं उपलब्ध हैं। उन्हें जानकर सम्प्रदाय के अनुसार यथारत्नाधिक का कृतिकर्म करना आवश्यक बताया गया है। भाष्यकार ने कृतिकर्म के ३२ दोषों का भी विशद वर्णन किया है और अन्त में लिखा है कि इन सब दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए, अन्यथा वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है।