Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीसरा उद्देशक]
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गृहस्थ का शय्या-संस्तारक लौटाने का विधान
२४. नोकप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियंसेज्जासंथारयं आयाए अपडिहटु संपव्वइत्तए।
२४. प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया है उसे उसके स्वामी को सौंपे बिना ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है।
विवेचन-साधु के पूर्ण शरीर-प्रमाण पीठ-फलक-तृण आदि को 'शय्या' कहते हैं और अढाई हाथ प्रमाण वाले पीठ-फलक-तृण आदि को 'संस्तारक' कहते हैं।
जो शय्या-संस्तारक गृहस्थ के घर से वापस लौटाने को कहकर लाये जाते हैं, उन्हें 'प्रातिहारिक' कहते हैं। साधु जब किसी ग्राम में पहुंचता है तो अपने योग्य शय्या-संस्तारक सागारिक के अतिरिक्त अन्य किसी गृहस्थ के घर से वापस सौंपने को कहकर लाता है। वह शय्या-संस्तारक उस गृहस्थ को सौंपे बिना ग्रामान्तर जाना साधु या साध्वी के लिए उचित नहीं है। यदि वह बिना लौटाए जाता है तो प्रायश्चित्त का पात्र होता है। बिना सौंपे ही विहार कर जाने पर साधु की अप्रतीति एवं निन्दा होती है, जिससे पुनः वहां शय्या-संस्तारक मिलना दुर्लभ होता है।
___ यहां शय्या-संस्तारक पद उपलक्षण रूप है। अतः वापस सौंपने को कहकर जो भी वस्तु गृहस्थ के घर से साधु या साध्वी लावें, उसे वापस सौंप करके ही अन्यत्र विहार करना चाहिए। शय्यातर का शय्या-संस्तारक व्यवस्थित करके लौटाने का विधान
२५. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कटु संपव्वइत्तए।
२६. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए विकरणं कटु संपव्वइत्तए।
२५. सागारिक का शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया गया है, उसे यथावस्थित किये बिना ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है।
२६. सागारिक का शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किया है, उसे व्यवस्थित करके ग्रामान्तर गमन करना निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को कल्पता है।
विवेचन-शय्यातर के शय्या-संस्तारक जहां पर जिस प्रकार से थे, उन्हें उसी प्रकार से करके सौंपने को 'विकरण' कहते हैं।
___ यदि उसी स्थान पर न रखे और उसी प्रकार से व्यवस्थित करके न सौंपे तो इसे 'अविकरण' कहते हैं।
इस सूत्र द्वारा यह निर्देश किया गया है कि शय्यातर के शय्या-संस्तारक जहां जैसे रखे हुए थे, जाते समय उन्हें उसी स्थान पर और उसी प्रकार से व्यवस्थित करके ग्रामान्तर के लिये विहार करना चाहिए। अन्यथा वे साधु-साध्वी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं।