Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१८२]
[बृहत्कल्पसूत्र ३. प्रवर्तक-जो साधुओं की योग्यता या रुचि देखकर उनको आचार्य-निर्दिष्ट कार्यों में तथा तप, संयम, योग, वैयावृत्य, सेवा, शुश्रूषा, अध्ययन-अध्यापन आदि में नियुक्त करे।
४. स्थविर-जो साधुओं के संयम में शैथिल्य देखकर या उन्हें संयम से विचलित देखकर इस लोक या परलोक सम्बन्धी अपायों (अनिष्ट या दोषों) का उपदेश करें और उन्हें अपने कर्तव्यों में स्थिर करे।
५. गणी-जो कुछ साधुओं के गण का स्वामी हो और साध्वियों की देख-रेख एवं व्यवस्था करने वाला हो। अथवा जो मुख्य आचार्य की निश्रा में अनेक आचार्य होते हैं, उन्हें गणी कहा जाता है।
६. गणधर-जो कुछ साधुओं का प्रमुख बनकर विचरण करता हो।
७. गणावच्छेदक-जो साधुजनों के भक्त-पान, स्थान, औषधोपचार, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था करने वाला हो।
उक्त सातों पदवीधारकों के क्रम का निरूपण करते हुए बताया गया है कि साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए, किन्तु अपनी प्रवर्तिनी की निश्रा से लेना चाहिए। यदि वह न हो तो संघ के आचार्य की निश्रा से लेवे। उनके अभाव में उपाध्याय की निश्रा से लेवे। इस प्रकार पूर्व-पूर्व पदधारकों के अभाव में उत्तर-उत्तर पदधारकों की निश्रा से वस्त्र को लेवे। यदि उक्त पदधारकों में से कोई भी समीप न हो तो जो और कोई भी गीतार्थ साधु या साध्वी हो, उसकी निश्रा से वस्त्र लेवे। किन्तु साध्वी को स्वयं की निश्रा से वस्त्र नहीं लेना चाहिए। दीक्षा के समय ग्रहण करने योग्य उपधि का विधान
१४. निग्गंथस्सणं तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्स कप्पइरयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
से य पुव्वोवट्ठिए सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
कप्पइ से अहापरिग्गहिएहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
१५. निग्गंथीए य तप्पढमयाए संपव्वयमाणीए कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
सा य पुव्वोवट्ठिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
कप्पइ से अहापरिग्गहिएहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए।
१४. गृहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रव्रजित होने वाले निर्ग्रन्थ को रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रव्रजित होना कल्पता है।
यदि वह पहले दीक्षित हो चुका हो तो उसे रजोहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रव्रजित होना नहीं कल्पता है।