Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[दशाश्रुतस्कन्ध किन्तु आगे की प्रतिमा धारण करने वाले को उसके पूर्व की सभी प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करना आवश्यक होता है अर्थात् सातवीं प्रतिमा धारण करने वाले को सचित्त का त्याग करने के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य, पौषध, कायोत्सर्ग आदि प्रतिमाओं का भी यथार्थ रूप से पालन करना आवश्यक होता है।
१. पहली दर्शनप्रतिमा धारण करने वाला श्रावक १२ व्रतों का पालन करता है किन्तु वह दृढ़प्रतिज्ञ सम्यक्त्वी होता है। मन वचन काय से वह सम्यक्त्व में किसी प्रकार का अतिचार नहीं लगाता है तथा देवता या राजा आदि किसी भी शक्ति से किंचित् मात्र भी सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता है अर्थात् किसी भी आगार के बिना तीन करण तीन योग से एक महीना तक शुद्ध सम्यक्त्व की आराधना करता है। इस प्रकार वह प्रथम दर्शनप्रतिमा वाला व्रतधारी श्रावक कहलाता है।
कुछ प्रतियों में से दंसणसावए भवइ' ऐसा पाठ भी मिलता है। उसका तात्पर्य भी यही है कि वह दर्शनप्रतिमाधारी व्रती श्रावक है क्योंकि जो एक व्रतधारी भी नहीं होता है उसे दर्शन श्रावक कहा जाता है किन्तु प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक पहले १२ व्रतों का पालक तो होता ही है। अतः उसे केवल 'दर्शनश्रावक' ऐसा नहीं कहा जा सकता।
२. दूसरी व्रतप्रतिमा धारण करने वाला यथेच्छ एक या अनेक छोटे या बड़े कोई भी नियम प्रतिमा के रूप में धारण करता है, जिनका उसे अतिचार रहित पालन करना आवश्यक होता है।
३. तीसरी सामायिकप्रतिमाधारी श्रावक सुबह दुपहर शाम को नियत समय पर ही सदा निरतिचार सामायिक एवं देशावकाशिक (१४ नियम धारण) व्रत का आराधन करता है तथा पहली दूसरी प्रतिमा के नियमों का भी पूर्ण पालन करता है।
__४. चौथी पौषधप्रतिमाधारी श्रावक पूर्व की तीनों प्रतिमाओं के नियमों का पालन नहीं करते हुए महीने से पर्व-तिथियों के छह प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् प्रकार से आराधन करता है। इस प्रतिमा के धारण करने से पहले श्रावक पौषध व्रत का पालन तो करता ही है किन्तु प्रतिमा के रूप में नहीं।
५. पांचवी कायोत्सर्गप्रतिमाधारी श्रावक पहले की चारों प्रतिमाओं का सम्यक् पालन करते हुए पौषध के दिन सम्पूर्ण रात्रि या नियत समय तक कायोत्सर्ग करता है।
६. छट्ठी ब्रह्मचर्यप्रतिमा का धारक पूर्व प्रतिमाओं का पालन करता हुआ सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। स्नान का और रात्रिभोजन का त्याग करता है तथा धोती की एक लांग खुली रखता है।
पाचंवीं छट्ठी प्रतिमा के मूल पाठ में लिपि-दोष से कुछ पाठ विकृत हुआ है, जो ध्यान देने पर स्पष्ट समझ में आ सकता है-प्रत्येक प्रतिमा के वर्णन में आगे की प्रतिमा के नियमों के पालन का निषेध किया जाता है। पांचवी प्रतिमा में छट्ठी प्रतिमा के विषय का निषेध-पाठ विधि रूप में जुड़ जाने से और चूर्णिकार द्वारा सम्यक् निर्णय न किये जाने के कारण मतिभ्रम से और भी पाठ विकृत हो गया है। प्रस्तुत प्रकाशन में उसे शुद्ध करने का प्रयत्न किया गया है।
पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले का ही स्नानत्याग उचित है। क्योंकि पांचवीं प्रतिमा में एक-एक मास में केवल ६ दिन ही स्नान का त्याग और दिन में कुशील सेवन का त्याग किया जाय तो