Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१२२]
[दशाश्रुतस्कन्ध ४. उपवास युक्त छ: पौषध (दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस, पूर्णिमा के दिन) आगार
रहित निरतिचार पालन करना। ५. पौषध के दिन पूर्ण रात्रि या नियत समय तक कायोत्सर्ग करना। ६. प्रतिपूर्ण ब्रह्मचर्य का आगार रहित पालन करना। साथ ही ये नियम रखना
१. स्नानत्याग, २. रात्रिभोजनत्याग, ३. धोती की एक लांग खुली रखना। ७. आगाररहित सचित्त वस्तु खाने का त्याग। ८. आगाररहित स्वयं हिंसा करने का त्याग करना। ९. दूसरों से सावध कार्य कराने का त्याग अर्थात् धर्मकार्य की प्रेरणा कर सकता है, उसके ___ अतिरिक्त किसी कार्य की प्रेरणा या आदेश नहीं कर सकता है। १०. सावध कार्य के अनुमोदन का भी त्याग करना अर्थात् अपने लिए बनाए गए आहारादि
__किसी भी पदार्थ को न लेना। ११. श्रमण के समान वेष एवं चर्या धारण करना।
लोच करना, विहार करना, सामुदायिक गोचरी करना या आजीवन संयमचर्या धारण करना इत्यादि का इसमें प्रतिबंध नहीं है। अत: वह भिक्षा आदि के समय स्वयं को प्रतिमाधारी श्रावक ही कहता है और ज्ञातिजनों के घरों में गोचरी जाता है। आगे-आगे की प्रतिमाओं में पहले-पहले की प्रतिमाओं का पालन करना आवश्यक होता है। सातवीं दशा का सारांश : बारह भिक्षुप्रतिमा
भिक्षु का दूसरा मनोरथ है कि 'मैं एकलविहारप्रतिमा धारण करके विचरण करूं।' भिक्षुप्रतिमा भी आठ मास की एकलविहारप्रतिमा युक्त होती है। विशिष्ट साधना के लिए एवं कर्मों की अत्यधिक निर्जरा के लिए आवश्यक योग्यता से सम्पन्न गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु इन बारह प्रतिमाओं को धारण करता है। इनके धारण करने के लिए प्रारम्भ के तीन संहनन, ९ पूर्वो का ज्ञान, २० वर्ष की दीक्षापर्याय एवं २९ वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। अनेक प्रकार की साधनाओं के एवं परीक्षाओं के बाद ही भिक्षुप्रतिमा धारण करने की आज्ञा मिलती है। प्रतिमाधारी के विशिष्ट नियम
१. दाता का एक पैर देहली के अन्दर और एक पैर बाहर हो। स्त्री गर्भवती आदि न हो, एक __ व्यक्ति का ही भोजन हो, उसमें से ही विवेक के साथ लेना। २. दिन के तीन भाग कल्पित कर किसी एक भाग में से गोचरी लाना, खाना। ३. छः प्रकार की भ्रमण विधि के अभिग्रह से गोचरी लेने जाना। ४. अज्ञात क्षेत्र में दो दिन और ज्ञात-परिचित क्षेत्रों में एक दिन से अधिक नहीं ठहरना।
५. चार कारणों के अतिरिक्त मौन ही रहना। धर्मोपदेश भी नहीं देना। ६-७. तीन प्रकार की शय्या और तीन प्रकार के संस्तारक का ही उपयोग करना। ८-९. साधु के ठहरने के बाद उस स्थान पर कोई स्त्री-पुरुष आवें, ठहरें या अग्नि लग जावे तो
भी बाहर नहीं निकलना।