Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सातवीं दशा]
. [६३ का त्याग करके एकाग्रचित्त से ध्यान में तल्लीन होकर समय व्यतीत करना कल्पता है तथा निर्धारित समय पर वहां से विहार करना कल्पता है।
९. प्रतिमाधारी भिक्षु जहां ठहरा हो वहां यदि कोई आग लगा दे तो उसे स्वतः या किसी के कहने से स्थान परिवर्तन करना नहीं कल्पता है, किन्तु संकल्प-विकल्पों का त्याग कर धैर्य के साथ आत्मध्यान में तल्लीन रहना कल्पता है।
यदि कोई व्यक्ति दयाभाव से उसे पकड़ कर बलात् निकाले तो वह निकालने वाले का किसी प्रकार से विरोध न करे किन्तु स्वतः ईर्यासमिति पूर्वक निकल जावे।
___ १०.११. प्रतिमाधारी भिक्षु के पांव में कांटा आदि लग जाय या आंख में रज आदि पड़ जाय तो उसे निकालने के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं कल्पता है। यदि कोई निकालने का प्रयत्न करे तो उसका प्रतीकार करना भी नहीं कल्पता है। माध्यस्थ भाव धारण करके विचरना कल्पता है।
ग्यारहवें नियम में प्रतिमाधारी भिक्षु को आंख में से त्रस प्राणी निकालने का निषेध किया गया है, इस नियम में भी शरीर के प्रति निरपेक्षता एवं सहनशीलता का ही लक्ष्य है। भिक्षु उस प्राणी के जीवित रहने तक आँखों की पलकें भी नहीं पड़ने देता है, जिससे वह स्वयं निकल जाता है। यदि वह नहीं निकल पा रहा हो तो उसकी अनुकम्पादृष्टि से प्रतिमाधारी भिक्षु निकाल सकता है। यथा-मार्ग में पशु भयभीत हो तो मार्ग छोड़ सकता है। इस प्रकार इन नियमों में प्रतिमाधारी के दृढमनोबली और कष्टसहिष्णु होते हुए शरीर के ममत्व व शुश्रूषा का त्याग करना सूचित किया गया है। इनमें जीवरक्षा का अपवाद स्वतः समझ लेना चाहिए।
१२. तीन प्रकार के ठहरने का स्थान न मिले और सूर्यास्त का समय हो जाय तो सूर्यास्त के पूर्व ही योग्य स्थान देखकर रुक जाना कल्पता है। वह स्थान आच्छादित हो या खुला आकाश वाला हो तो भी सूर्यास्त के बाद एक कदम भी चलना नहीं कल्पता है।
__ऐसी स्थिति में यदि भिक्षु के ठहरने के आस-पास की भूमि सचित्त हो तो उसे निद्रा या ऊँघ लेना नहीं कल्पता है। सतत सावधानीपूर्वक जागृत रहते हुए स्थिर आसन से रात्रि व्यतीत करना कल्पता है। मल-मूत्र की बाधा हो तो यतनापूर्वक पूर्व प्रतिलेखित भूमि में जा सकता है और परठ कर पुनः उसी स्थान पर आकर उसे स्थित होना कल्पता है।
__सूत्र में खुले आकाश वाले स्थान के लिए ही 'जलंसि' शब्द का प्रयोग किया गया है क्योंकि खुले स्थान में निरन्तर सूक्ष्म जलवृष्टि होना भगवतीसूत्र श. १, उ. ६ में कहा है। अतः उस शब्द से नदी तालाब आदि जलाशय नहीं समझना चाहिये। बृहत्कल्पसूत्र उ. २ में ऐसे स्थान के लिए अब्भावगासियंसि' शब्द का प्रयोग है।
१३. प्रतिमाधारी भिक्षु के कभी कहीं हाथ पैर आदि पर सचित्त रज लग जाए तो उसका प्रमार्जन करना नहीं कल्पता है और स्वतः पसीने आदि से रज अचित्त न हो जाय तब तक गोचरी जाना नहीं कल्पता है किन्तु स्थिरकाय होकर खड़े रहना कल्पता है।