Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दसवीं दशा]
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१. प्रथम निदान में निर्ग्रन्थ का पुरुष होना कहा है। २. दूसरे निदान में निर्ग्रन्थी का स्त्री होना कहा है। ३. तीसरे निदान में निर्ग्रन्थी का स्त्री होना कहा है। ४. चौथे निदान में निर्ग्रन्थी का पुरुष होना कहा है।
पांचवें, छठे और सातवें निदान में देव सम्बन्धी भोगों की प्राप्ति के लिये निदान करने का कथन है। संकल्पानुसार भिक्षु या भिक्षुणी को देवगति की प्राप्ति हो जाती है तथा उसके बाद प्राप्त होने वाले मनुष्यजीवन में भी उसे भोग-ऋद्धि की प्राप्ति होती है।
५. पांचवें निदान वाला देवलोक में स्वयं की देवियों के साथ, स्वयं की विकुर्वित देवियों के साथ और दूसरों की देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है किन्तु उसके बाद वह मनुष्यभव पाकर भी धर्मश्रवण के अयोग्य होता है तथा काल करके नरक में जाता है।
६. छठे निदान वाला देवलोक में स्वयं की देवियों के साथ तथा स्वयं की विकुर्वित देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है। बाद में वह मनुष्य बनकर भी तापस-संन्यासी बनता है तथा काल करके असुरकुमारनिकाय में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न होकर बाद में वह तिर्यक्योनि में भ्रमण करता है।
७. सातवें निदान वाला देवलोक में केवल स्वयं की देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है, किन्तु विकुर्वित देवियों के साथ भोग नहीं भोगता और बाद में वह मनुष्य बनकर सम्यग्दृष्टि होता है, किन्तु निदान के कारण व्रत धारण नहीं कर सकता है।
आठवां और नवमा निदान श्रावक-अवस्था या साधु-अवस्था प्राप्त करने का कहा गया है।
८. आठवें निदान वाला देवलोक में जाकर फिर मनुष्य होता है और बारहव्रतधारी श्रावक बनता है किन्तु निदान के कारण संयम ग्रहण नहीं कर सकता।
९. नवमें निदान वाला भी देवभव के पश्चात् इच्छित (तुच्छ) कुल में मनुष्य बनता है। संयम स्वीकार करता है, किन्तु तप संयम की उग्र साधना नहीं कर सकता और निदान के प्रभाव से उस भव में मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है।
इस प्रकार नव निदानों के वर्णन के बाद अनिदान-अवस्था का वर्णन किया गया है। निदानरहित साधना करने वाला सर्वसंगातीत होकर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध बुद्ध मुक्त होता
है।
इस प्रकार इस दशा में निदान के कटु फल कहकर अनिदान संयमसाधना के लिए प्रेरणा दी
गई है।
बृहत्कल्पसूत्र उ. ६ में भी कहा है-'निदान करने वाला स्वयं के लिये मोक्ष के मार्ग का नाश करता है अतः भगवान् ने सर्वत्र निदान न करना ही प्रशस्त कहा है।' भगवदाज्ञा को जानकर मोक्षमार्ग की साधना करने वालों को कदापि निदान नहीं करना चाहिए।