Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दसवीं दशा]
[१०१ प्र०-क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है? उ०-यह सम्भव नहीं है, किन्तु वह अन्य दर्शन में रुचि रखता है। अन्य दर्शन को स्वीकार कर वह इस प्रकार के आचरण वाला होता है
जैसे कि ये पर्णकुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक हैं, असंयत हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं हैं। वे सत्य-मृषा (मिश्रभाषा) का इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि
'मुझे मत मारो, दूसरों को मारो, मुझे आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो, मुझ को पीडित मत करो, दूसरों को पीडित करो, मुझ को मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो, मुझे भयभीत मत करो, दूसरों को भयभीत करो,'
इसी प्रकार वे स्त्री सम्बंधी कामभोगों में भी मूर्च्छित-ग्रथित, गृद्ध एवं आसक्त होकर यावत् जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी असुरलोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते हैं।
वहां से वे देह छोड़ कर पुनः भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक रूप में उत्पन्न होते हैं।
हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं रखता है। ७. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के द्वारा सहज दिव्यभोग का निदान करना
___ एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते जाव' से य परक्कममाणे माणुस्सएसु कामभोगेसु निव्वेदं गच्छेज्जा -
'माणुस्सग्गा खलु कामभोगा अधुवा जाव' विप्पजहियव्वा।
संति उद्धं देवा देवलोगंसि। ते णं तत्थ णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिमुंजियअभिजुंजिय परियारेइ, णो अप्पणो चेव अप्पाणं वेउव्विय-वेउव्विय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ।'
___'जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाइं एयारूवाइं दिव्वाइं भोगाइं भुंजमाणे विहरामि-से तं साहु।'
एवं खलु समणाउसो! णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा णियाणं किच्चा जाव देवे भवइ महिड्डिए जाव दिव्वाइं भोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
१-४. प्रथम निदान में देखें।