Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[दशाश्रुतस्कन्ध
चार प्रतिमा तक की कालमर्यादा का कथन इस सूत्र में नहीं है।
पांचवीं से ग्यारहवीं तक क्रमशः पांच मास से ग्यारह मास तक का काल कहा गया है तदनुसार पहली से चौथी तक क्रमशः एक मास से चार मास तक का काल परम्परा से माना जाता है इसमें कोई मतभेद नहीं है।
पांचवीं प्रतिमा से आगे जो काल-मान बताया गया है, उसमें जघन्य काल एक, दो और तीन दिन का जो कहा है, वह भ्रान्तिजनक प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसा विकल्प भिक्षुप्रतिमा में भी नहीं है तथा अर्थसंगति भी संतोषप्रद नहीं है। पूर्वाचार्य तीन तरह से अर्थ की संगति करते हैं
१. एक-दो दिन के लिये ही धारण कर बाद में स्वतः छोड़ दे। २. एक-दो दिन के बाद काल कर जाये। ३. एक-दो दिन के बाद संयम स्वीकार कर ले।
प्रतिमाएँ दृढ़ता और वीरता की सूचक हैं और पांच-छह मास की प्रतिमा को एक-दो दिन के लिये धारण करना तो दृढ़ता नहीं।
मरने का विकल्प तो भिक्षुप्रतिमा में भी हो सकता है। किन्तु वहाँ जघन्यकाल नहीं कहा है।
एक दिन के बाद संयम स्वीकार कर ले, ऐसे चंचल विचार की कल्पना करना प्रतिमाधारी के लिए ठीक नहीं है। अतः जघन्यस्थिति का पाठ विचारणीय है।
ग्यारह प्रतिमाओं का कुल समय एक मास से लेकर ग्यारह मास तक का होता है। इनका योग करने पर पांच वर्ष और छह मास होते हैं-यह परम्परा सर्वसम्मत है।
ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना पूर्ण होने के बाद ग्यारहवीं प्रतिमा जैसा जीवनपर्यन्त रहना ही श्रेयस्कर है।यही दृढ़ता एवं वीरता का सूचक है। किन्तु आगम में इस विषय का उल्लेख नहीं मिलता है।
इन प्रतिमाओं की आराधना क्रमश: करना या बिना क्रम के करना, ऐसा स्पष्ट विधान उपलब्ध नहीं है। किन्तु कार्तिक सेठ के समान एक प्रतिमा को अनेक बार धारण किया जा सकता है।
___ श्रावक प्रतिमा के सम्बन्ध में यह भी एक प्रचलित कल्पना है कि 'प्रथम प्रतिमा में एकान्तर उपवास, दूसरी प्रतिमा में निरन्तर बेले, तीसरी में तेले यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा में ग्यारह की तपश्चर्या निरन्तर की जा सकती है। किन्तु इस विषय में कोई आगमप्रमाण उपलब्ध नहीं है तथा ऐसा मानना संगत भी नहीं है, क्योंकि इतनी तपस्या तो भिक्षुप्रतिमा में भी नहीं की जाती है। श्रावक की चौथी प्रतिमा में महीने के छह पौषध करने का विधान है। यदि उपरोक्त कथन के अनुसार तपस्या की जाए तो चार मास में २४ चौले की तपस्या करनी आवश्यक होती है। प्रतिमाधारी के द्वारा तपस्या तिविहार या बिना पौषध के करना भी उचित नहीं है। अतः २४ चौले पौषधयुक्त करना आवश्यक नियम होने पर महीने के छह पौषध का विधान निरर्थक हो जाता है। जब कि तीसरी प्रतिमा से चौथी प्रतिमा की विशेषता भी यही है कि महीने के छह पौषध किये जावें। अतः कल्पित तपस्या का क्रम सूत्रसम्मत नहीं है। आनन्द आदि श्रावकों के अन्तिम साधनाकाल में तथा प्रतिमा-आराधन के बाद शरीर की कृशता का जो वर्णन