Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[दशाश्रुतस्कई
२. जो अनगारधर्म के प्रति उत्सुक नहीं हैं, उन्हें अनगारधर्म स्वीकार करने के लिये उत्साहित करना।
अथवा १. यथार्थ संयमधर्म समझाना, २. संयमधर्म के यथार्थ ज्ञाता को ज्ञानादि में अपने समान बनाना।
३. किसी अप्रिय प्रसंग से किसी भिक्षु की संयमधर्म से अरुचि हो जाय तो उसे विवेकपूर्वक पुनः स्थिर करना।
४. श्रद्धालु शिष्यों को संयमधर्म की पूर्ण आराधना कराने में सदैव तत्पर रहना। यह आचार्य का चार प्रकार का 'विक्षेपणा-विनय' है।
४. दोषनिर्घातनाविनय-शिष्यों की समुचित व्यवस्था करते हुए भी विशाल समूह में साधना करते हुए कभी कोई साधक छद्मस्थ अवस्था के कारण कषायों के वशीभूत होकर किसी दोषविशेष के पात्र हो सकते हैं।
१. उनकी क्रोधादि अवस्थाओं का सम्यक् प्रकार के छेदन करना। २. राग-द्वेषात्मक परिणति का तटस्थतापूर्वक निवारण करना।
३. अनेक प्रकार की आकांक्षाओं के अधीन शिष्यों की आंकाक्षाओं को उचित उपायों से दूर करना।
४. इन विभिन्न दोषों का निवारण कर संयम में सुदृढ़ करना अथवा शिष्यों के उक्त दोषों का निवारण करते हुए भी अपनी आत्मा को संयमगुणों से परिपूर्ण बनाये रखना। शिष्य-समुदाय में उत्पन्न दोषों को दूर करना।
यह आचार्य का चार प्रकार का 'दोषनिर्घातनाविनय' है।
सम्पूर्ण ऐश्वर्य-सम्पन्न जो राजा प्रजा का प्रतिपालक होता है वही यशकीर्ति को प्राप्त कर सुखी होता है, वैसे ही जो आचार्य शिष्यसमुदाय की विवेकपूर्वक परिपालना करता हुआ संयम की आराधना कराता है, वह शीघ्र ही मोक्ष गति को प्राप्त करता है। भगवतीसूत्र श. ५ उ.६ में कहा है कि सम्यक् प्रकार से गण का परिपालन करने वाले आचार्य, उपाध्याय उसी भव में या दूसरे भव में अथवा तीसरे भव में अवश्य मुक्ति प्राप्त करते हैं। आचार्य और गण के प्रति शिष्य के कर्तव्य
तस्सणं एवं गुणजाइयस्सअंतेवासिस्स इमाचउबिहा विणयपडिवत्तीभवइ, तंजहा
१.उवगरणउप्पायणया, २.साहिल्लणया, ३. वण्णसंजलणया, ४.भारपच्चोरुहणया। १. प०-से किं तं उवगरणउप्पायणया? उ०-उवगरणउप्यायणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा
१. अणुप्पण्णाणं उवगरणाणं उप्पाइत्ता भवइ, २. पोराणाणं उवगरणाणं सारक्खित्ता संगोवित्ता भवइ, ३. परित्तं जाणित्ता पच्चुद्धरित्ता भवइ, ४. अहाविहिं संविभइत्ता भवइ।
से तं उवगरणउप्पायणया।