Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौथी दशा]
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१. आचारविनय, २. श्रुतविनय, ३. विक्षेपणाविनय, ४. दोषनिर्घातनाविनय।
१. आचारविनय-गणी (आचार्य) का मुख्य कर्तव्य है कि सबसे पहले शिष्यों को आचार सम्बन्धी शिक्षाओं से सुशिक्षित करे। वह आचार संबंधी शिक्षा चार प्रकार की है
१.संयम की प्रत्येक प्रवृत्ति के विधि-निषेधों का ज्ञान कराना, काल-अकाल का ज्ञान कराना। महाव्रत, समिति, गुप्ति, यतिधर्म, परीषहजय आदि का यथार्थ बोध देना।
२. अनेक प्रकार की तपश्चर्याओं के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराना। तप करने की शक्ति और उत्साह बढ़ाना। निरन्तर तपश्चर्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये आगमोक्त क्रम से तपश्चर्या की एवं पारणा में परिमित पथ्य आहारादि के सेवन की विधि का ज्ञान कराना।
३. गीतार्थ अगीतार्थ भद्रिक परिणामी आदि सभी की संयमसाधना निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिए आचारशास्त्रों तथा छेदसूत्रों के आधार से बनाये गये गच्छ सम्बन्धी नियमों उपनियमों (समाचारी) का सम्यक् ज्ञान कराना।
४. गण की सामूहिकचर्या को त्यागकर एकाकीविहारचर्या करने की योग्यता का, वय का तथा विचरणकाल में सावधानियाँ रखने का ज्ञान कराना एवं एकाकीविहार करने की क्षमता प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान कराना। क्योंकि भिक्षु का द्वितीय मनोरथ यह है कि 'कब मैं गच्छ के सामूहिक कर्तव्यों से मुक्त होकर एकाकीविहारचर्या धारण करूँ।' अतः एकाकीविहारचर्या की विधि का ज्ञान कराना आचार्य का चौथा आचारविनय है।
__ आचारांगसूत्र श्रु. १, अ. ५ और ६ में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की एकाकीविहारचर्या के लक्षण बताये गये हैं। उनमें से प्रशस्त एकलविहारचर्या के वर्णन को लक्ष्य में रखकर एकलविहारचर्या के निषेध की परम्परा प्रचलित है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र, द्वितीय मनोरथ तथा गणव्युत्सर्ग तप वर्णन के अनुसार एकलविहारचर्या का सर्वथा विरोध करना आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता। इस पाठ की व्याख्या में भी स्पष्ट उल्लेख है कि आचार्य एकाकीविहारचर्या धारण करने के लिये दूसरों को उत्साहित करने तथा स्वयं भी अनुकूल अवसर पर निवृत्त होकर इस चर्या को धारण करे। इस सूत्र की नियुक्ति, चूर्णि के सम्पादक मुनिराज भी यही सूचित करते हैं कि एकान्त निषेध उचित नहीं है।
यह आचार्य का चार प्रकार का 'आचार-विनय' है।
२. श्रुतविनय-१-२ आचारधर्म का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ आचार्य का दूसरा कर्तव्य है-आज्ञाधीन शिष्यों को सूत्र व अर्थ की समुचित वाचना देकर श्रुतसम्पन्न बनाना।
३. उस सूत्रार्थ के ज्ञान से तप संयम की वृद्धि के उपायों का ज्ञान कराना अर्थात् शास्त्रज्ञान को जीवन में क्रियान्वित करवाना अथवा समय-समय पर उन्हें हितशिक्षा देना।
४. सूत्ररुचि वाले शिष्यों को प्रमाणनय की चर्चा द्वारा अर्थ परमार्थ समझाना। छेदसूत्र आदि सभी आगमों की क्रमशः वाचना के समय आने वाले विघ्नों का शमन कर श्रुतवाचना पूर्ण कराना।
यह आचार्य का चार प्रकार का 'श्रुतविनय' है। ३. विक्षेपणाविनय-१. जो धर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, उन्हें धर्म का स्वरूप समझाना।