Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ २७
चौथी दशा ]
८. उपरोक्त गुणों से धर्म की प्रभावना होने पर सर्वत्र यश की वृद्धि होने से शिष्य परिवार की वृद्धि होना स्वाभाविक है। विशाल शिष्यसमुदाय के संयम की यथाविधि आराधना हो इसके लिये विचरण क्षेत्र, उपधि, आहारादि की सुलभता तथा अध्ययन, सेवा, विनय-व्यवहार की समुचित व्यवस्था और संयम समाचारी के पालन की देख-रेख, सारणा - वारणा सुव्यवस्थित होना भी अत्यावश्यक है। इस प्रकार आठों ही संपदाएँ परस्पर एक-दूसरे की पूरक तथा स्वतः महत्त्वशील हैं। ऐसे गुणों से संपन्न आचार्य का होना प्रत्येक गण (गच्छ-समुदाय) के लिये अनिवार्य है। जैसे कुशल नाविक के बिना नौका के यात्रियों की समुद्र में पूर्ण सुरक्षा की आशा रखना अनुचित है वैसे ही आठ संपदाओं से संपन्न आचार्य के अभाव में संयमसाधकों की साधना और आराधना सदा विराधना रहित रहे, यह भी संभव नहीं है।
प्रत्येक साधक का भी यह कर्त्तव्य है कि वह जब तक पूर्ण योग्य और गीतार्थ न बन जाय तब तक उपरोक्त योग्यता से संपन्न आचार्य के नेतृत्व में ही अपना संयमी जीवन सुरक्षित बनाये रखे । शिष्य के प्रति आचार्य के कर्तव्य
आयरिओ अंतवासिं इमाए चउव्विहाए विणयपडिवत्तीए विणइत्ता भवइ निरिणंत गच्छइ,
तं जहा
-
विणणं ।
१. आयार - विणणं, २. सुय - विणएणं, ३ विक्खेवणा-विणएणं, ४. दोषनिग्घायण
१. प० - - से किं तं आयार- विणए ?
उ० – आयार - विणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा
१. संयमसामायारी यावि भवइ,
३. गणसामायारी याँवि भवइ,
सेतं आयार - विणए ।
- से किं तं सुय-विणए ?
- सुय-विणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा
१. सुत्तं वाएइ, २. अत्थं वाएइ, ३. हियं वाएइ, ४. निस्सेसं वाएइ । से तं सुय-विणए । ३. प०- - से किं तं विक्खेवणा - विणए ?
२. प०
उ०
२. तवसामायारी यावि भवइ,
४. एकल्लविहारसामायारी यावि भवइ ।
उ०- विक्खेवणा- विणए चडव्विहे पण्णत्ते, तं जहा
१. अदिट्ठधम्मं दिट्ठ-पुव्वगत्ताए विणयइत्ता भवइ,
२. दिट्ठपुव्वगं साहम्मियत्ताए विणयइत्ता भवइ,
३. चुयधम्माओ धम्मे ठावइत्ता भवइ,
४. तस्सेव धम्मस्स हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, अणुगामियत्ताए अब्भुट्ठेत्ता भवइ । से तं विक्खेवणा- विणए ।
४. प० - से किं तं दोसनिग्धायणा - विणए ?