Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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करने के लिये नियुक्ति की ही रचना की है और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता का अभाव है उन अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया है। वह नियुक्ति और भाष्य सूत्र के अर्थ को प्रकट करने वाले होने से दोनों एक ग्रन्थ रूप हो गये। वृत्ति में प्राकृत गाथाओं का उद्धरण के रूप में प्रयोग हुआ है और विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से प्राकृत कथाएँ उद्धृत की गई हैं। प्रस्तुत मलयगिरि वृत्ति का ग्रन्थमान ४६०० श्लोक प्रमाण है।
__ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य मलयगिरि शास्त्रों के गम्भीर ज्ञाता थे। विभिन्न दर्शनशास्त्रों का जैसा और जितना गम्भीर विवेचन एवं विश्लेषण उनकी टीकाओं में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है। वे अपने युग के महान् तत्त्वचिन्तक, प्रसिद्ध टीकाकार और महान् व्याख्याता थे। आगमों के गुरुगम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, अनूठी थी।
सौभाग्यसागर ने बृहत्कल्प पर संस्कृत भाषा में एक टीका लिखी।
बृहत्कल्पनियुक्ति, लघुभाष्य तथा मलयगिरि, क्षेमकीर्ति कृत टीका सहित सन् १९३३ से १९४१ तक श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर सौराष्ट्र से प्रकाशित हुई। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन चतुरविजयजी और पुण्यविजयजी ने किया। सम्पादन कला की दृष्टि से यह सम्पादन उत्कृष्ट कहा जा सकता है।
बृहत्कल्प एक अज्ञात टीकाकार की टीका सहित सम्यक्ज्ञान प्रचारक मण्डल जोधपुर से प्रकाशित हुआ। सन् १९२३ में जर्मन टिप्पणी आदि के साथ डब्लू. शुबिंग लेपज़िग, मूल मात्र नागरीलिपि में-जैन साहित्य समिति पूना द्वारा प्रकाशित किया गया।
सन् १९१५ में डॉ. जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबाद से प्रकाशित किया, और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने हिन्दी अनुवाद सहित सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद से प्रकाशित किया। ई. सन् १९७७ में आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से 'कप्पसुत्तं' के नाम से मूलानुस्पर्शी अनुवाद और विशेष अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ।
प्रस्तुत सम्पादन-प्रस्तुत आगम के सम्पादक आगम अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' हैं। जिनका शब्दानुलक्षी अनुवाद और सम्पादन मन को लुभाने वाला है। प्राचीन व्याख्या साहित्य के आधार पर अनेक निगूढ़ रहस्यों को सम्पादक मुनिवर ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्यवहारसूत्र व्याख्यासाहित्य
व्यवहार श्रमण जीवन की साधना का एक जीवन्त भाष्य है। व्यवहारनियुक्ति में उत्सर्ग और अपवाद का विवेचन है। इस नियुक्ति पर भाष्य भी है, जो अधिक विस्तृत है। बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति परस्पर शैली भाव-भाषा की दृष्टि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों में साधना के तथ्य व सिद्धान्त प्रायः समान हैं। यह नियुक्ति भाष्य में विलीन हो गई है। व्यवहारभाष्य
हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि व्यवहारभाष्य के रचयिता का नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। बृहत्कल्पभाष्य के समान ही इस भाष्य में भी निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के आचार-विचार पर प्रकाश डाला है।
सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गई है। व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष, तदर्हपर्षद आदि का विवेचन