Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१०].
[दशाश्रुतस्कन्ध ___ इस दुष्कर्म को बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक चार में गुरु प्रायश्चित्त का स्थान और ठाणांग सूत्र के पांचवें ठाणे में भी गुरु प्रायश्चित्त का स्थान कहा है। अतः प्रत्येक साधु का यह कर्तव्य है कि वे इस ब्रह्मचर्यघातक प्रवृत्ति से स्वयं बचे और अन्य संयमियों को भी इस कुकर्म से बचाए। क्योंकि शारीरिक शक्ति के मूलाधार वीर्य का इस कुटेव से नाश होता है। हस्तमैथुन से सभी सद्गुण शनैः-शनैः समाप्त होकर व्यक्ति दुर्गुणी बन जाता है और उसका शरीर अनेक असाध्य रोगों से ग्रस्त हो जाता है। अतः मुमुक्षु साधक इस शबल दोष का सेवन न करे।
२. मैथुनसेवन-संयमी साधक मैथुन त्याग करके आजीवन ब्रह्मचर्य पालन के लिए उद्यत हो जाता है। क्योंकि वह यह जानता है कि "मूलमेयं अहम्मस्स, महादोससमुस्सयं"-यह मैथुन अधर्म का मूल है एवं महादोषों का समूह है तथा "खाणी अणत्थाण हु कामभोगा"-कामभोग अनर्थों की खान है। इस प्रकार विवेकपूर्वक संयमसाधना करते हुए भी कभी-कभी आहार-विहार की असावधानियों से या नववाड़ का यथार्थ पालन न करने से वेदमोह का तीव्र उदय होने पर साधक संयमसाधना से विचलित हो सकता है। इसलिए आगमों में अनेक स्थलों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के ब्रह्मचर्य पालन के लिये प्रेरित किया गया है। मैथुनसेवन की प्रवृत्ति स्त्रीसंसर्ग से होती है और हस्तकर्म की प्रवृत्ति स्वतः होती है। अतः हस्तकर्म करने वाला तो स्वयं ही भीतर ही भीतर दुःखी होता है,किन्तु मैथुनसेवन करने वाला स्वयं को, समाज को एवं संघ को कलंकित करके अपना वर्चस्व समाप्त कर देता है। मैथुन सेवन करने वाले को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है, साथ ही उसके तीन वर्ष के लिए या जीवन भर के लिये धर्मशास्ता के सभी उच्च पदों को प्राप्त करने के अधिकार समाप्त कर दिये जाते हैं। वह महाकर्मों का बंध करके विराधक हो जाता है और परभव में निरंतर दुःखी रहता है। अतः भिक्षु इस शबल दोष का सेवन न करे।
३. रात्रिभोजन-भिक्षु आजीवन रात्रिभोजन का त्यागी होता है। वह सूर्यास्त के बाद अपने पास आहार-पानी आदि रख भी नहीं सकता है। रात्रिभोजन का त्याग करना यह साधु का मूल गुण है। इसके लिये दशवैकालिक, बृहत्कल्प, निशीथ, ठाणांग आदि सूत्रों में विभिन्न प्रकार के निषेध और प्रायश्चित्त का विधान है।
__ निशीथसूत्र में दिन में ग्रहण किये हुए गोबर आदि विलेपन योग्य पदार्थों का रात्रि में उपयोग करना भी रात्रिभोजनहीमाना है और उसका प्रायश्चित्त भी कहा गया है। रात्रिभोजन से प्रथम महाव्रत भी दूषित होता है। दिन में भी अंधकारयुक्त स्थान में भिक्षु को आहार करना निषिद्ध है। अतः भिक्षु इस शबल दोष को संयम में क्षति पहुँचाने वाला और कर्मबंध कराने वाला जानकर इसका कदापि सेवन न करे।
४. आधाकर्म-यह एषणासमिति में उद्गम दोष है। जो आहारादि साधु, साध्वी के निमित्त तैयार किया हो, अग्नि, पानी आदि का आरंभ किया गया हो, वह आहारादि आधाकर्म दोषयुक्त कहलाता है। अनेक आगमों में आधाकर्म आहार खाने का निषेध किया गया है। सूयगडांग सूत्र श्रु. १ अ. १० में आधाकर्म आहार की चाहना करने का भी निषेध है और उसकी प्रशंसा करने का भी निषेध है। आचारांग सूत्र श्रु. १ अ. ८ उ. २ में कहा गया है-'कोई गृहस्थ आधाकर्म दोषयुक्त आहार देने के