Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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किया गया है और विषय को स्पष्ट करने के लिए अनेक दृष्टान्त भी दिये गये हैं। आधाकर्म से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के लिए पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त का विधान है। मूलगुण और
रगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। अतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिये चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है।
पिण्डविशद्धि समिति भावना तप प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगण में हैं। इनके क्रमश: बयालीस. आठ, पच्चीस, बारह. बारह, और चार भेद होते हैं। प्रायश्चित्त करने वाले परुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। इनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं।
प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. उभयतर-जो संयम तप की साधना करता हुआ ही दूसरों की सेवा कर सकता है। २. आत्मतर- जो केवल तप ही कर सकता है। ३. परतर-जो केवल सेवा ही कर सकता है। ४. अन्यतर- जो तप और सेवा दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है।
आलोचना आलोचनाह और आलोचक के बिना नहीं होती। आलोचनार्ह स्वयं आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्रावी, इन गुणों से युक्त होता है। आलोचक भी जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी इन दस गुणों से युक्त होता है। साथ ही आलोचना के दोष, तद्विषयभूत द्रव्य आदि, प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भी भाष्यकार ने चिन्तन किया है।
परिहारतप के वर्णन में सेवा का विश्लेषण किया गया है और सुभद्रा और मृगावती के उदाहरण भी दिये गये हैं। आरोपणा के प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा ये पांच प्रकार बताये हैं तथा इन पर विस्तार से चर्चा की है।
शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, अवसन्न और संसक्त के स्वरूप पर प्रकाश डाला
श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनको लगने वाले दोषों का निरूपण किया है।
विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संसक्त श्रमण की सेवा का विधान करते हुए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने की मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान तीन कारण हैं। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है। सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है। शत्रुओं को पराजित करने के कारण वह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्राय: मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है।
भाष्यकार ने गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवर्तिनी आदि पदवियों के धारण करने वाले की योग्यताओं पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत हैं, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थ विशारद हैं, धीर हैं, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही आचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं।
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