Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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हेतु अनार्य क्षेत्र में विचरण करने का आदेश दिया है और उसके लिए राजा सम्प्रति का दृष्टान्त भी दिया गया है।
श्रमण और श्रमणियों के आचार, विचार, आहार, विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सर्वत्र निक्षेपपद्धति से व्याख्यान किया गया है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है।
बृहत्कल्प-लघुभाष्य-बृहत्कल्प लघुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्प के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघुभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या ६४९० है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है। भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तत पीठिका दी गई है। जिसकी गाथा संख्या ८०५ है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कतिक सामग्री का संकलन-आकलन हआ है। इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में 'यात्री और सार्थवाह' का सुन्दर आकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
___ पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्वप्राप्ति का क्रम और औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दृष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है।
पहले उद्देशक की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल-प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता के विधि-विधान, वैषों के आठ प्रकार बताये हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण-श्रमणियों के एक दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके १४४ भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है। ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर विवेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवर्धितमास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएं, समवसरण, तीर्थंकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ और अशुभ कर्मप्रकृतियां, तीर्थंकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आपणगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तरापण आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उनकी चर्चा की गई है।
भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये हैं
(१) उत्तानकमल्लक, (२) अवाङ मुखमल्लक, 13) सम्पुटमल्लक/४) उत्तानकखण्डमल्लक (५) अवाङ्मुखखण्डमल्लक, (६) सम्पुटखण्डमल्लक, (७) भिति, (८) पडालि, (९) वलाभि, (१०) अक्षाटक, (११) रुचक, (१२) काश्यपक।
तीर्थंकर, गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जिनकल्पिक मुनि की समाचारी का वर्णन सत्ताईस द्वारों से किया है-(१) श्रुत, (२) संहनन, (३) उपसर्ग, (४) आतंक, (५) वेदना, (६) कतिजन, (७) स्थंडिल, (८) वसति, (९) कियाच्चिर, (१०) उच्चार, (११) प्रस्रवण,
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