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हुए सर्व ही आत्माएं सर्व ही अवस्थाओं में एक शुद्ध निर्विकार देखने में आती हैं। इस दृष्टिमें नर श्रावकार वारणतरण
नारक तिर्यच देवके सबभेद, संसारी सिरके भेद, गुणस्थान व मार्गणाके सष भेद लोप होजाते हैं। ॥ ७॥ यही दृष्टि समताभाव जागृत करती है। शत्रु मित्र. स्वामी सेवक, पूज्य पूजक, ध्याता ध्येयका
विकल्प मिटाती है। वीतरागताका आदर्श जमाती है। सर्व क्लेशोंका शासन करती है।
योगसारमें योगेन्द्राचार्य कहते हैं
सुद्धप्पा अरु निणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खह कारण माइया णिच्छह एउ वियाणि ॥२०॥
भावार्थ-शुद्ध आत्मामें और जिनेन्द्र में भेद कुछ भी न जानो।हे योगी निश्चयनयसे यही भाव मोक्षका कारण है ऐसा समझ ।
श्लोक-ॐकारस्य ऊर्धस्य, अर्घ सद्भाव तिष्ठते ।
ॐवंद्वियं श्रिय वंदे, त्रिविधिअथ च संजुतं ॥४१॥ अन्वयार्थ (ऊर्धस्य ) श्रेष्ठ (ॐकाराय) ॐमंत्रके भीतर (अर्थ) श्रेष्ठ (सद्भाव) सत्तारूप पदार्थ अशुद्ध आत्मा (तिष्ठते) विराजमान है। वह (ॐ हियं प्रियं) ॐ श्री (त्रिविधि अर्थ व संजुतं) इनके तीन प्रकार भावोंको लिये हुए हैं उसको (वंदे ) नमस्कार करता हूं।
विशेषार्थ-तीन लोकमें परम पद अरहतादि पांच ही हैं जिनको सर्व इन्द्रादि चक्रवर्ती आदि पुन: पुन: नमस्कार करते हैं उनहीका वाचक णमोकार मंत्र है व उनहीका वाचक यह ७ मंत्र है। इसलिये यह ॐ महामंत्र है, सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ है। इसके भीतर जो पांच परमेष्ठी गर्भित हैं उन पांचोहीके भीतर परम पदार्थ शुद्वात्मा शोभायमान होरहा है। ॐ का अर्थ जैसे इस पदार्थ में गभित है वैसे ही ह्रीं व श्री का भी है।हीं से चौवीस तीर्थंकरोंका संकेत है, इनके भीतर भी
वही शुद्धात्मा है तथा श्री से अनंतचतुष्टय लक्षमीका बोध होता है। वह लक्ष्मी इस ही शुद्धात्मामें र विद्यमान है । इसलिये मैं ॐ मंत्रसे जानने योग्य अपने ही भीतर विराजित परम पदार्थ सत्तारूप
शुद्ध आत्माको बन्दना करता अर्थात उसीमें तन्मय होकर अनुभव करता हूं। यही भाव वन्दना परम मंगलरूप व मोक्षहेतु है।
॥४७॥