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भरणतरण
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श्रावकाचार ___श्लोक-सम्यक् देव उपासते, रागद्वेष विमुक्तयं ।
अरूपं शाश्वतं शुद्धं, स्वयं आनंदरूपयं ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ—सम्यदृष्टी जीव निश्चयसे (रागद्वेष विमुक्तयं ) रागवेषादि भावोंसे रहित परम वीत. राग ( अरूपं) वर्णादि रहित अमूर्तीक (शाश्वतं) अविनाशी (शुद्ध) कर्मादि मल रहित शुद्ध (आनंदरूप) * आनंदरूप (स्वयं) जो आप स्वयं है ऐसे (सम्यक् देव) यथार्थ परमात्माकी (उपासते) सेवा करता है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि यद्यपि सम्यक्दृष्टी जीव व्यवहार नयसे अरहंत सिडको पूज्यनीय देव मानता है तथापि निश्चयसे अपने आपको देव मानकर उसीकी आराधना करता है। यह आत्मा जो शरीरमें वस रहा है वह निश्चयसे भावकर्म रागद्वेषादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि आठ कर्म, नोकर्म शरीरादिसे भिन्न है। स्पर्श, रस, गंध व वर्ण रहित अमूर्तीक है। अनादिसे अनंतकाल रहनेवाला अविनाशी है तथा सदा ही आनन्दरूप है। वास्तवमें जो अपने आत्माको यथार्थ जैसाका तैसा द्रव्य रूप, सर्व परद्रव्योंसे व परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे मिन्न अनुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि है।
श्लोक–देवं देवाधिदेवं च, नंत चतुष्टे संजुतं ।
___ॐकारं च वेदंते, तिष्ठतं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ४०॥ अन्वयार्थ-(च) तथा ( देवाधिदेवं ) देवोंका देव जो ( नंत चतुष्टे समुतं ) अनंत चतुष्टय सहित है ४ (शाश्वतं ) अविनाशी है (ध्रुवं ) द्रव्य अपेक्षा एकरूप है ( ॐकारं च तिष्ठतं ) जो ॐशब्दमें भी विरा-४ जित है ऐसे (देवं ) परमात्माको (वेदंते) अनुभव करता है।
विशेषार्थ-सम्यक्ती यह भी अनुभव करता है कि ॐ शब्दमें जो अरईत, सिद्ध, आचार्य, ४ * उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठी हैं उनके भीतर भी निश्चयसे वही शुद्धात्मा है जैसा कि मेरे
शरीरके भीतर शुद्धात्मा है। द्रव्य दृष्टि करके देखा जावे तो कोई भेद नहीं है। द्रव्यार्थिक नयसे सदा ही एकरूप टंकोत्कीर्ण रहनेवाला है। सदा ही उसमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुष्टय विराजमान हैं। शुद्ध निश्चयनयकी मुख्यतासे देखने