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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
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अभाव पदार्थ के विषय में स्पष्टता :
वैशेषिक सूत्र १-१-४ में छः ही पदार्थ बताये हैं और प्रशस्तपाद भाष्य में भी द्रव्यादि छ: पदार्थो का निरूपण दिखाई देता हैं । अभाव का प्रतिपादन नहीं दिखाई देता है । जब कि, "एते च पदार्था वैशेषिके प्रसिद्धा नैयायिकानामप्यविरुद्धाः" ऐसा न्यायसिद्धांतमुक्तावली में कहा हैं । द्रव्यादि सात पदार्थ वैशेषिक दर्शन में प्रसिद्ध है, ऐसा कहकर वह दर्शन अभाव सहित सात पदार्थों को मानता हैं, ऐसा बताते हैं । इस तरह से परस्पर विसंगति आती हैं । तदुपरांत, नव्यन्याय के ग्रंथों में अभाव और उसके चार प्रकार का विस्तार से निरुपण हुआ दिखाई देता हैं। इसलिए “अभाव" नाम का पदार्थ वैशेषिको ने कब से स्वीकार किया यह प्रश्न उपस्थित होता हैं ।
हकीकत ऐसी हैं कि, वैशेषिक सूत्र, प्रशस्तपाद भाष्य और न्यायसूत्र, अभाव नामके पदार्थ के बारे में मौन धारण करते हैं। परन्तु उसके बाद हुए ग्रंथकारो ने कही कही अभाव नामके पदार्थ का स्वीकार किया है और दसवीं शाताब्दी में रचे गये श्री शिवादित्य कृत "सप्तपदार्थी" ग्रंथ में अभाव की पदार्थ के रूप में गणना की गई हैं । न्यायभाष्यकार श्री उद्योतकर अभाव का बाह्य अस्तित्व स्वीकार करते है । वे कहते हैं कि, अभाव भी समवाय की तरह विशेषण - विशेष्य भाव सन्निकर्ष द्वारा प्रत्यक्ष होता हैं ।(१५२) श्री वाचस्पतिमिश्र, श्री जयंत भट्ट और श्रीधरने अभाव को बाह्य अस्तित्व रखनेवाली वस्तु के रुप में सिद्ध करने के लिए अत्यंत पुरुषार्थ किया हैं । श्री गदाधर भट्टाचार्य विरचित व्यधिकरण प्रकरण आदि नव्य न्याय के ग्रंथो में तो अभाव और उसके चार भेदो का विशद निरूपण दिखाई देता हैं ।
न्यायसिद्धांतमुक्तावली में अभाव के चार भेदो का वर्णन किया हैं । (१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव, (३) अन्योन्याभाव और (४) अत्यंताभाव ।
मीमांसा दर्शनने भी अभाव और उसके चार भेद माने हैं । इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि न्याय-वैशेषिक दर्शनों ने दसवीं शताब्दी में अभाव नाम के पदार्थ को स्वीकार किया होगा और तब से उसके उपर विवेचन प्रारंभ हुआ होगा। यहाँ उल्लेखनीय है कि, प्रस्तुत ग्रंथ में प्रशस्तपाद भाष्य के आधार पर वैशेषिक दर्शन के छ: पदार्थ ही बताये हैं । प्रमाणमीमांसा :
वैशेषिक दर्शन प्रमाण का सामान्य लक्षण "अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्" मानते हैं । अव्यभिचारि आदि विशेषणो से विशिष्ट अर्थोपलब्धि की जनिका ज्ञानरूप या अचेतनरूप समग्र सामग्री या सामग्री का एक अंश साधकतम होने से प्रमाण है अथवा इस सामग्री की कार्यभूत यथोक्त विशेषण से विशिष्ट अर्थोपलब्धि ही प्रमाण का सामान्य लक्षण हैं (१५३)
वैशेषिको ने प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण ही माने है । प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं - (१) इन्द्रियज, (२) योगज । इन्द्रियज प्रत्यक्ष निर्विकल्पक और सविकल्पक ऐसे दो प्रकार का हैं । योगज प्रत्यक्ष के भी दो प्रकार है - युक्तयोगियों का प्रत्यक्ष और वियुक्तयोगियों का प्रत्यक्ष ।
लिंग देखकर अव्यभिचारि आदि विशेषणो से युक्त ज्ञान हो उसे अनुमिति कहा जाता है । यह अनुमिति परामर्श आदि कारणसमुदाय से उत्पन्न होती है । अनुमिति के कारणसमुदायको अनुमान कहा जाता है । अनुमान के अनेक प्रकार वैशेषिक सूत्र में बताये हैं ।१५४) उसका स्वरूप श्लोक-६७ की टीका में से जान लेना ।
152. समवाये चाभावे च विशेषणाभावात् ।। न्या.वा. १-१-४।। 153. (षड्.समु. श्लोक-६७ टीका)। 154.अस्येदं कार्यं कारणं
संयोगि समवायि विरोधि चेति लैङ्गिकम् ।। (वै.सू. ९-२-१) ।
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