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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १२, नैयायिक दर्शन
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स्त्री नहि रखनेवाले, उत्तम कहे जाते है। वे पंचाग्नि की साधना में लगे होते है। (रुद्राक्ष की माला, कि जिसको प्राणलिंग कहा जाता है।) हाथ में तथा जटादि में उस प्राणलिंग को धारण करनेवाले होते है। उपरांत, उत्तम संयमावस्था को प्राप्त करे हुए नग्न (वस्त्रहीन) फिरते है।
वे सुबह दंतमंजन और पैर आदि की शुद्धि करके शिव का ध्यान करते हुए भस्म के द्वारा अंग के उपर तीन-तीन बार स्पर्श करते है। अर्थात् शरीर के कुछ खास अंगो के उपर भस्म की (१)तीन-तीन लाइने (रेखायें) करते है। वंदन करता हुआ यजमान अंजलीपूर्वक (हाथ जोड के) "ॐ नमः शिवाय" बोलाता है और गुरु सामने "शिवाय नमः" बोलते है। वे सभा में इस अनुसार बोलते है। (कहते है।) - "जो शैवधर्म का दासी या दास भी शैवशासन की दीक्षा को बारह साल आचरण करके (सेवन करके) छोड देते है, वे भी निर्वाण को प्राप्त करते है ॥१॥"
सृष्टि और संहार करनेवाले सर्वज्ञ देव उनके ईश्वर है। उस ईश्वर के अठारह अवतार है। वे इस अनुसार - (१) नकुली, (२) शौष्यकौशिक, (३) गार्ग्य, (४) मैत्र्य, (५) अकौरुष, (६) इशान, (७) पारगार्ग्य, (८) कपिलाण्ड, (९) मनुष्यक, (१०) कुशिक, (११) अत्रि, (१२) पिंगल, (१३) पुष्पक, (१४) बृहदार्य, (१५) अगस्ति, (१६) संतान, (१७) राशीकर, (१८) विद्यागुरु ।
ये उस नैयायिको के पूजनीय तीर्थंकर (तीर्थ को करनेवाला) है। ये तीर्थेशो की पूजा-प्रणिधान की विधि उनके शास्त्र से जान लेना। उनके सर्व तीर्थो में भरट (दास) ही पूजा करनेवाले होते है।
वे देवो को सामने से नमस्कार नहीं करते है। उनमें जो निर्विकार है वे अपनी मीमांसा का इस पद्य को कहते है। "हम तो प्राचीन मुनियो के द्वारा ध्यान किये गये ईश्वर के उस निर्विकार स्वरुप की उपासना करते है। जिसमें न तो स्वर्गगंगा है न तो सर्प है न तो मुण्डमाला है, न चन्द्रमा की कला है। न आधे शरीर में पार्वती है, न जटा है, न भस्म का लेप है तथा ऐसी अन्य कोई उपाधियाँ नहीं है, वैसे निरुपाधि निर्विकार स्वरुप ही योगियों के द्वारा सेव्य है। आज ईश्वर का जो स्वरुप पूजा जाता है वह तो भोगरुप है और राज्यादि ऐहिक सुखो के लोलुप जीव ही उस स्वरुप की उपासना करते है।" (२)
उन्हो ने अपने योगशास्त्र में कहा भी है कि... "वीतराग का स्मरण - ध्यान करनेवाला योगी वीतरागता को प्राप्त कर लेता है और सराग का ध्यान करनेवाले की सरागता निश्चित है। (१) (तात्पर्य यह है कि..) मन रुप यन्त्र को चलानेवाला आत्मा (यंत्रवाहक) जो जो भाव से युक्त होके जिसका जिसका ध्यान करते है, वह स्वयं तन्मय हो जाता है। जैसे कि स्फटिक मणि को जो जो प्रकार की उपाधियाँ मिलती है (तब) उसका रंग उस उपाधियों के अनुसार अनेक प्रकार का हो जाता है।
एतत्सर्वं लिङ्गवेषदेवादिस्वरूपं वैशेषिकमतेऽप्यवसातव्यं, यतो नैयायिकवैशेषिकाणां हि मिथः प्रमाणतत्त्वानां संख्याभेदे सत्यप्यन्योन्यं तत्त्वानामन्तर्भावनेऽल्पीयानेव भेदो जायते । तेनैतेषां प्रायो (१) मस्तक, हृदय, नाभि के उपर तीन लाईन करते है। मस्तक के उपर शिव का वास मानते है। हृदय के उपर ब्रह्मा
का वास मानते है । नाभि के उपर विष्णु का वास मानते है।
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