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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
ने (अंतःकरणावच्छिन्नचैतन्य-जीव ने) विषय प्रकाशन हेतु अपने साक्षी की यदि अपेक्षा की हो, तो उसको साक्षिचैतन्य की उपाधि मानना योग्य हो सकता हैं, परन्तु प्रमाता विषयप्रकाशन के लिए स्वसाक्षी की अपेक्षा ही रखता नहीं हैं। उस साक्षी की सहायता के बिना चक्षुरादि इन्द्रियजन्य वृत्त्यवच्छिन्न चैतन्य से ही विषय को प्रकाशित कर लेगा। __ ऐसी शंका करना उचित नहीं हैं । क्योंकि "अंतःकरण" अविद्या का कार्य होने से जड हैं। इसलिए उस विषय को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं । क्षण-प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली वृत्तियाँ अनेक होने के कारण, उस वृत्तियों से अवच्छिन्न हुए चैतन्य भी अनेक हैं। उस कारण से अनेक संख्यकवाली वृत्तियों का समस्त विषयो का अनुसंधातृत्व संभव नहीं हैं । क्षण-प्रतिक्षण उत्पन्न हो कर नाश होनेवाली वृत्तियाँ संपूर्ण विषयो का अनुसंधान करने में समर्थ नहीं हैं। प्रमाता, अंतःकरण से अवच्छिन्न होने से उसको भूत-भविष्य-वर्तमानकालीन विषयो का अनुसंधान करने में (करने के लिए) दूसरे की अपेक्षा रहती हैं। उसके सिवा त्रैकालिक विषयो का अनुसंधान संभव नहीं हैं। इसलिए प्रमाता से संबद्ध और ब्रह्माभिन्न ऐसे साक्षी की अत्यंत आवश्यकता हैं। इसलिए अंतःकरण में साक्षी का उपाधित्व अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
दूसरी एक शंका यह हो सकती है कि, जीवसाक्षी का ब्रह्म के साथ अभेद होने से उसमें स्वयं प्रकाशत्व हैं । इसलिए साक्षि में सर्वविषयानुसंधातृत्व हैं, ऐसा मानने से उसमें एकत्व प्राप्त होता हैं। क्योंकि, ब्रह्म एक हैं। इसलिए ब्रह्माभिन्न साक्षी में भी एकत्व ही हैं। और सर्वजीवो के साक्षी एक हैं, ऐसा मानने से एक जीव के द्वारा अनुभूयमान विषय का अनुसंधान दूसरे जीव को भी होने लगेगा। इस शंका का निराकरण करने के लिए ग्रंथकार कहते हैं कि, प्रत्येक जीवात्मा का यह साक्षिचैतन्य भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि उसको एक मानने से मैत्र को ज्ञात हुए विषय का अनुसंधान (स्मरण) चैत्रादि अन्य व्यक्तियों को भी होने लगेगा। परन्तु ऐसी अनवस्था खडी न हो जाय इसके लिए हमने अंत:करणरुप उपाधि के भेद के कारण जीवसाक्षी में नानात्व स्वीकार किया हैं। इसलिए उपर्युक्त दोष नहीं आता हैं। इस तरह से जीवसाक्षी का निरुपण करके अब ईश्वरसाक्षी का निरुपण करते हुए कहते हैं कि
ईश्वरसाक्षि तु (८३)मायोपहितं चैतन्यम् । तच्चैकम् । तदुपाधिभूतमायाया एकत्वात् । परन्तु (उससे विपरीत) मायोपहित चैतन्य ही ईश्वरसाक्षी चैतन्य हैं। और वह एक हैं। यह ईश्वर साक्षिचैतन्य एक हैं, क्योंकि उस साक्षिचैतन्य की उपाधिरुप माया एक हैं। माया एक होने से मायोपहित चैतन्य भी एक हैं। इस तरह से दोनों साक्षिचैतन्यो में भेद हैं। (अनादि, अनिर्वाच्य, विपर्यय की उपादान और विक्षेपप्रधान ईश्वरशक्ति ही माया हैं - यह माया का लक्षण हैं।) (इन दोनों भेदो के विषय में विशेष विस्तार, जिज्ञासु वेदांतपरिभाषा के प्रत्यक्ष परिच्छेद में देखें।
• विषयप्रत्यक्षका निकृष्ट लक्षण :- वेदांत में विषय के प्रत्यक्ष की प्रक्रिया बताते हुए वेदांतपरिभाषा में बताया हैं कि-xxx तदर्थं निर्गलितोऽर्थः स्वाकारवृत्त्युपहित-प्रमातृचैतन्यसत्तातिरिक्त-सत्ताकत्वशून्यत्वे सति योग्यत्वं विषयस्य प्रत्यक्षत्वम् । तत्र संयोगसंयुक्ततादात्म्यादीनां सन्निकर्षाणां चैतन्याभिव्यञ्जकवृत्तिजनने विनियोगः ।
(८३) मायोपहितमविद्योपहितम् । मायाऽविद्यायोरभेद इति विवरणसिद्धान्तः । मायाविद्ययोर्भेदपक्षे तु मायोपहितमिति । विशुद्धसत्त्वप्रधानोपहितमित्यर्थः । विशुद्धसत्त्वप्रधाना माया, मलिसत्त्वप्रधानात्वविद्येति तयोर्भेदः । तथा च पञ्चदशीकाराः - "तमोरजः सत्त्वगुणा प्रकृतिर्द्विविद्या च सा। सत्त्वशुद्ध्यिविशुद्धिभ्यां मायाऽविद्ये च ते मते।" (वेदांत परिभाषा (चौखम्बा), पृ-८९, टिप्पनकम्)
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