Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

View full book text
Previous | Next

Page 568
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४५५ मत में एकमात्र ब्रह्म का ही स्वीकार किया होने से उसको "अविकृत ब्रह्मवाद" भी कहा जाता हैं। उनके मत में परब्रह्म का सत्य पाने के लिए भगवान की शरणागति या प्रतिपत्ति (भक्ति) आवश्यक हैं। और ऐसा किये जाने पर भगवान भक्त का पोषण करते हैं । इसलिए उस मार्ग को "पुष्टिमार्ग" भी कहा जाता हैं । इनके अन्य ग्रन्थ हैं-(१) सुबोधिनीप्रकाश, (२) उपनिषद्दीपिका, (३) आवरणभंग, (४) प्रस्थानरत्नाकर, (५) सुवर्णसूत्र (विद्वन्मण्डल की पांडित्यपूर्ण विवृत्ति), (६) गीता की अमृततरंगिणी टीका तथा (७) षोडशग्रन्थविवृत्ति । इस भाष्यप्रकाश पर विस्तृत 'रश्मि' नामक व्याख्या श्री गोपेश्वरजी (१८ शतक) ने लिखी हैं। श्री गिरिधर महाराज गोस्वामी श्री विट्ठलनाथ के पुत्र थे। इनका 'शुद्धाद्वैतमार्तण्ड' वल्लभ मत का विवेचक प्रख्यात ग्रन्थ हैं। श्री हरिराय (हरिदास) ने अनेक छोटे-मोटे ग्रन्थों का निर्माण किया हैं, जिनमें ब्रह्मवाद, भक्तिरसवाद आदि विख्यात हैं । श्री व्रजनाथभट्ट की 'मरीचिका' ब्रह्म सूत्रों की अणुभाष्यानुसारिणी वृत्ति हैं। 'लालूभट्ट' के नाम से प्रसिद्ध, श्री पुरुषोत्तम तथा श्री अप्पयदीक्षित के समकालीन श्री बालकृष्ण भट्ट का 'प्रमेयरत्नार्णव' नितान्त प्रौढ ग्रन्थ हैं । अधिकांश वल्लभ-साहित्य का प्रकाशन बम्बई तथा काशी (चौखम्बा कार्यालय) से हुआ हैं। श्रीवल्लभाचार्य की तत्त्वमीमांसा :- श्रीवल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धान्त 'शुद्धाद्वैत' के नाम से विख्यात हैं। इनके मत से ब्रह्म माया से अलिप्त अत: नितान्त शुद्ध हैं। यह माया सम्बन्धरहित ब्रह्म ही एक अद्वैत तत्त्व हैं। अतः इस मत का शुद्धाद्वैत नाम यथार्थ ही हैं। ब्रह्म :- इस मत में ब्रह्म सर्वधर्मविशिष्ट अंगीकृत किया गया हैं। अतः उसमें विरुद्ध धर्मो की स्थिति भी नित्य हैं । अद्वैतवादियों के मतानुसार निर्धर्मक, निर्विशेष तथा निर्गुण ब्रह्म माया के सम्पर्क से सगुण के समान प्रतीत होता हैं, यह कथन ठीक नहीं हैं, क्योंकि अहिकुण्डल के लौकिक दृष्टान्त से ब्रह्म में उभयरूपता का होना श्रुतिसिद्ध हैं। [उभयव्यपदेशात् त्वहिकुण्डलवत् । (ब्र.सू. ३।२।२७ पर अणु भाष्य)] यह विरुद्ध धर्मो की सत्ता माया से प्रतिभासित ही नहीं होती हैं, प्रत्युत स्वाभाविक भी हैं। भगवान् की महिमा अनवगाह्य हैं, अतः जो अणोरणीयान् हैं, वे ही महतो महीयान् हैं। वे अनेक रूप होकर भी एक हैं, स्वतन्त्र होने पर भी भक्तपराधीन हैं। यह संसार लीलानिकेतन ब्रह्म की ललित लीलाओं का विकासमात्र हैं। यह जगत्कर्तृत्व वास्तव हैं, माया-कल्पित नहीं । अखिलरसामृतमूर्ति निखिल लीलाधाम श्रीकृष्ण ही यह परब्रह्म हैं। __ आचार्य वल्लभ के मत में ब्रह्म तीन प्रकार का होता हैं- (१) आधिदैविक = परब्रह्म; (२) आध्यात्मिक = अक्षरब्रह्म; (३) आधिभौतिक = जगत् । अतः जगत् ब्रह्मरूप ही हैं। कार्यकारण में भेद न होने से कार्यरूप जगत् कारणरूप ब्रह्म ही हैं। जिस प्रकार लपेटा गया कपडा फैलाने पर वही रहता हैं, उसी प्रकार आविर्भावदशा में जगत् तथा तिरोभावरूप में ब्रह्म एक ही हैं, भिन्न नहीं । जगत् का आविर्भाव कार्य केवल लीलामात्र हैं। श्री वल्लभाचार्य के मत में ब्रह्म ही स्वभाव से जगत् के कर्ता हैं। उनके कर्ता होने में माया का व्यापार तनिक भी नहीं होता। वे स्वयं लीलाधाम ठहरे और इसलिए जगत् की सृष्टि में ब्रह्म की लीला ही एकमात्र कारण होती हैं। जब उनकी इच्छा होती हैं वे जगत् का संहार या लय कर देते हैं। अन्ततः प्रलय भी भगवान् की लीला का ही एक रूप हैं । अतः भगवान् स्वाभाविक रीति से सृष्टि और प्रलय दोनों करते हैं । ये दोनों उनकी लीला के विलासमात्र हैं। जिस प्रकार कोई योगी अपनी विचित्र शक्तियों के सहारे वस्तुओं की सृष्टि कर उनसे खेलता है और अन्त में उनका संहार कर देता हैं; भगवान् की भी यही दशा होती हैं। भगवान् की महिमा अतर्य हैं। कोई भी उनकी महिमा के यथार्थ रूप को जान नहीं सकता। भगवान् अपनी अचिन्त्य माया से जगत् की सृष्टि कर उससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712