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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट - २, योगदर्शन
यथाक्रम से ध्येयरुप से वह साधक लेता हैं। वे सूक्ष्मपदार्थ अदृष्टजातीय होने से त्रसरेणुक इत्यादि स्थूल पदार्थ के साक्षात्कार से पूर्व ध्येय नहीं हो सकते हैं। जब त्र्यणुकादि का साक्षात्कार भावना के परिपाक से होता हैं, तब ही जैसे हाल में सर्व पुरुषो को घट की अंदर मृत्तिका अनुगत हुई भासित होती हैं। और इसलिए ध्येय लेनी हो तो ले सकते हैं। वैसे, उस साक्षात्कृत स्थूल के अंदर कारणरूप से अनुगत पाये हुए सूक्ष्म पदार्थ ध्येयरुप से ले सकते हैं। यह प्रमाण होने से सवितर्क समाधि में पहुँचा हुआ योगी ही उस पदार्थो को ध्येयरुप से ले सकते हैं। उस पदार्थो को ध्येयरूप से लेकर उसमें भावना का अभ्यास वे योगी करते हैं । इस भावना की परिपाक अवस्था योगी को उस सूक्ष्म पदार्थो में रहे हुए अशेष विशेष का साक्षात्कार होता हैं और वह साक्षात्कार को शास्त्र में प्रसंग से चित्त की परिपूर्णता कहकर वर्णन करते हैं। तथा प्रसंग से वह साक्षात्कार सूक्ष्म वस्तु का होने से उसे चित्त की सूक्ष्म परिपूर्णता भी कहते हैं । यह साक्षात्कार या चित्त की सूक्ष्म परिपूर्णता वह "विशेषेण सूक्ष्मवस्तुपर्यन्तं चरणम्... सूक्ष्म वस्तुपर्यन्त चित्त की परिपूर्णता होना वह इस व्युत्पत्ति से 'विचार' कहा जाता हैं। यह विचार या साक्षात्कार जिससे या जिसमें होता है वह समाधि ' सविचार' कही जाती हैं। इसलिए योग की द्वितीय भूमिकारुप सविचार समाधि का यह अर्थ हुआ कि जो समाधि या संप्रज्ञातयोग से स्थूल विषय में कारणरुप से अनुगत हुए होने से सूक्ष्म संज्ञा से ग्रहण किये जाते पदार्थों के अशेष विशेष का साक्षात्कार होता हैं, वह समाधि सविचार हैं। यह सविचार समाधि भी ग्राह्यविषयक ही होती हैं ।
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(३) सानंद समाधि : जो समाधि आनंद युक्त हो अर्थात् जिसमें या जिसके द्वारा आनंद का साक्षात्कार होता हैं, उसे सानंद समाधि कहा जाता हैं। आनंद के तीन अर्थ होते हैं । (१) ( वाचस्पति मिश्र के अनुसार) सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुई इन्द्रियाँ जो सत्त्वप्रधान होती हैं और सत्त्व ही आनंदरुप होने से जो आनंदरुप उपचार से कहा जाता हैं वह । (२) (भोजवृत्ति के अनुसार) रजोगुण और तमोगुण लेश से संपृक्त हुआ बुद्धिसत्त्व (३) (वार्तिककार के अनुसार) सूक्ष्म विषयक समाधि से जो आल्हाद नाम की सुखरुप अंत:करण की वृत्ति वह आनंद हैं। इस प्रकार का आनंद जो समाधि या संप्रज्ञातयोग से साक्षात्कृत होता हैं, वह सानंद समाधि । इस समाधि को शास्त्र में प्रसंग से ग्रहणविषयक समाधि भी कही हैं।
( ४ ) सास्मिता समाधि :- सानंद समाधि के अनंतर योगी को गृहीतविषयक समाधि होती हैं। जिसे सास्मिता समाधि या सास्मित संप्रज्ञातयोग शास्त्रकार कहते हैं। जो संप्रज्ञातयोग से अस्मिता का साक्षात्कार होता हैं वह संप्रज्ञातयोग सास्मित संप्रज्ञातयोग हैं। वहाँ अस्मिता अर्थात् ग्रहीतृ आत्मा के साथ एकभाव को प्राप्त हुए बुद्धिसत्त्व की भावना की जाती हैं तब उस भावना की परिपाक दशा में योगी को उस तत्त्व का साक्षात्कार हैं। उपरांत, जब ईश्वर या पुरुषरुप आत्मा को ध्येय लेकर भावना की जाती हैं तब उस भावना की परिपाक दशा में योगी को उस तत्त्वो का साक्षात्कार होता हैं । वह साक्षात्कार जो चित्तवृत्ति के निरोधरुप योग का फल हैं। वह निरोधरुप योग सास्मित कहा जाता हैं । इस योग में बुद्धिसत्त्व तथा पुरुष के विवेकरुप विवेकख्याति की सिद्धि योगी को होती हैं। इसलिए यह योग चारों में श्रेष्ठ हैं। धैर्यवान साधक अप्रमादयुक्त धैर्य का अवलंबन करके गंतव्य स्थान तक जाकर विवेकख्याति को प्राप्त करना और तब ही कृतकृत्य हुआ समजना । परन्तु मध्य में (बीच में) धैर्य का त्याग करके भ्रष्ट न हो ।
असंप्रज्ञातयोग :- विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥१- १८ ॥ ( योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- परवैराग्य के अभ्यास से चित्त की जो संस्कारशेष अवस्था वह असंप्रज्ञातयोग कहा जाता हैं
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