Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 630
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-४, जैन दर्शन का ग्रंथकलाप ५१७ परिचय : (१) पू. श्री हरिभद्रसूरिजी कृत ३००० श्लोक प्रमाण शिष्यहिता टीका, (२) ५९०० श्लोक प्रमाण वृत्ति, (३) २२६५ श्लोक प्रमाण चूर्णि । इस ग्रंथ में मूलसूत्र २००० श्लोक प्रमाण है । [जैन पारिभाषिक शब्दो की समझ : (१) आगम : तीर्थंकर केवलज्ञानी, वितरागी प्रभु की मौलिकवाणी, (२) श्रुतस्कंध : किसी भी आगम का आंतर विभाग । (३) अध्ययन : श्रुतस्कंध का आंतर विभाग । (४) उद्देश : अध्ययन का आंतर विभाग, (५) सूत्र : उद्देश का आंतर विभाग । (६) नियुक्ति : आगमों के उपर १४ पूर्वधर समर्थ श्रुतधर आचार्यश्री की प्राकृत भाषा में श्लोक बद्ध व्याख्या । जिसमें शब्द के व्युत्पत्ति अर्थ की प्रधानता होती हैं । (७) चूर्णि: आगमो के गुरुगम से चले आते अर्थो का संकलन, (८) भाष्य : वृद्ध पुरुषों ने संभाल के रखी हुई आगमिक परंपरा का संकलन, (९) टीका : समर्थ गीतार्थ भगवंत ने की हुई व्याख्या । (१०) छेदसूत्र : गंभीर और गूढ अर्थवाले आगम ।] महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी म. विरचित ग्रन्थपरिचय : प्राकृत-संस्कृत भाषा में उपलब्ध स्वोपज्ञटीका युक्त ग्रन्थकलाप : (१) अध्यात्ममतपरीक्षा : केवलीभुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध करनेवाले दिगम्बर मत का इस ग्रन्थ में निराकरण किया है । एवं निश्चयनय-व्यवहारनय का तर्कगर्भित विशदपरिचायक ग्रंथ हैं । (२) आध्यात्मिकमतपरीक्षा : इस ग्रंथ में केवलिकवलाहारविरोधी दिगम्बरमत का खंडन करके केवलि के केवलाहार की उपपत्ति की गई है । (३) आराधकविराधकचतुर्भङ्गी-देशतः आराधक और विराधक तथा सर्वत: आराधक और विराधक इन चार का स्पष्टीकरण किया है । (४) उपदेश रहस्य : उपदेशपद ग्रन्थ के रहस्यभूत अपुनर्बंधक से लेकर अध्यात्मध्यानयोग इत्यादि अनेक विषयों पर इस ग्रन्थ में प्रकाश डाला गया हैं। (५) ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका : इस ग्रन्थ में ऋषभदेव से महावीरस्वामी तक २४ तीर्थंकरों की स्तुतिओं और उनका विवरण हैं । (६) कूपदृष्टान्तविशदीकरण : गृहस्थों के लिये विहित द्रव्यस्तव में निर्दोषता के प्रतिपादन में उपयुक्त कूप के दृष्टान्त का स्पष्टीकरण है। (७) गुरुतत्त्वविनिश्चय : निश्यच और व्यवहार नय से सद्गुरु और कुगुरु के स्वरूप का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में हैं । (८) ज्ञानार्णव : मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यव तथा केवलज्ञान इन पाँचो ज्ञान के स्वरूप का विस्तृत प्रतिपादन । (९) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका : ३२ श्लोकपरिमाण ३२ प्रकरणों में षोडशक-योगदृष्टि-योगबिन्दु आदि ग्रंथों के विविध विषयों का इस में निरूपण किया गया है । (१०) धर्मपरीक्षा : उपा० धर्मसागरजी के 'उत्सूत्रभाषी नियमा अनन्तसंसारी होते है' इत्यादि अनेक उत्सूत्रप्रतिपादन का इस में निराकरण । (११) नयोपदेश : नैगमादि ७ नयों पर इस ग्रन्थ में श्रेष्ठकोटि का विवरण उपलब्ध हैं । (१२) महावीरस्तव : न्यायखण्डखाद्यटीका-बौद्ध और नैयायिक के एकान्तवाद का इस ग्रन्थ में निरसन किया हैं । (१३) प्रतिमाशतक : भगवान के स्थापना निक्षेप की पूज्यता को न माननेवाले का निरसन कर मूर्तिपूजा की कल्याणकारिता इस में वर्णित हैं । (१४) भाषा रहस्य : प्रज्ञापनादि उपाङ्ग में प्रतिपादित भाषा के अनेक भेद-प्रभेदों का इस में विस्तृत वर्णन हैं । (१५) सामाचारी प्रकरण : इच्छा-मिच्छादि दशविध साधु सामाचारी का इस ग्रन्थ में तर्कशैली से स्पष्टीकरण है । अन्यकर्तृकग्रन्थ की उपलब्ध टीकाएँ : (१६) उत्पादादिसिद्धि : (मूलकर्ता-श्री चन्द्रसूरि) इस ग्रन्थ में जैनदर्शनशास्त्रों के अनुसार 'सत्' के उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक लक्षण पर विशद प्रकाश डाला गया हैं - श्री उपाध्यायजी म. विरचित टीका पूर्ण उपलब्ध नहीं हो रही हैं । (१७) कम्मपयडि-बृहद् टीका : (मूलक -श्री शिवशर्मसूरि)-जैनदर्शन का महत्त्व का विषय कर्म के बन्धनादि' विविध करणों पर विवरणात्मक टीका है । (१८) कम्मपयडि लघुटीका : इस टीका का प्रारम्भिक पत्र मात्र उपलब्ध होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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