Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 688
________________ परिशिष्ट-८, षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, व्याख्या की शैली का परिचय चेत् ? उच्यते, पुण्यपापयोरभावे सुखदुःखयोर्निर्हेतुकत्वादनुत्पाद एव स्यात्, स च प्रत्यक्षविरुद्ध:, तथाहि मनुजत्वे समानेऽपि दृश्यन्ते केचन स्वामित्वमनुभवन्तो अपरे पुनस्तत्ष्प्रेष्यभावमाबिभ्राणा, एके च लक्षकुक्षिभरयः अन्ये तु स्वोदरपूरणेऽप्यनिपुणाः । (श्लो. ५० टीका) भावार्थ : पूर्वपक्ष: पुण्य और पाप को आकाशकुसुम के जैसे ही मानने चाहिए । सद्भूत नहि मानने चाहिए । उपरांत (उन दोनो का अभाव होने से ) उन दोनो के फल भुगतने के स्थान स्वर्ग और नर्क भी विद्यमान (अस्तित्व में) नहीं है। ५७५ उत्तरपक्ष : पुण्य और पाप के अभाव में सुख-दुःख निर्हेतुक बन जायेंगे और उसकी उत्पत्ति ही नहिं होगी और वह तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । वह प्रत्यक्ष विरुद्धता इस अनुसार से है: : मनुष्य के रुप में समान होने पर भी कुछ लोग स्वामिपन का अनुभव करते हुए दिखाई देते है और वैसे ही दूसरे दासत्व को धारण करते हुए दिखाई देते है । तथा एक व्यक्ति लाखों लोगो का भरणपोषण करता है तो एक अपने पेट का गडहा भी पूर्ण नहीं कर सकता । (८) कई बार उत्तर पक्षकार जिस बात का निरुपण करता है । उसें सभी अन्य मतो को "परमतानि च अमूनि” “अपरे तु वदन्ति”, “अन्ये त्वाहः”, “अन्ये पुनराहुः" इत्यादि पदो को रखकर बताते है और उत्तरपक्षकार " उच्यते" कहकर उन सभी मतो का खंडन करते है । (गाथा - ५०) ( ९ ) जब पूर्वपक्षकार की बात बिलकुल अयोग्य हो तब अथ.... चेत् के बीच पूर्वपक्षग्रंथ को रखकर, “तदयुक्तं” कहकर उत्तरपक्षकार अपने समाधान का प्रारंभ करता है और पूर्वपक्ष की बात की अयोग्यता का कारण बताते है। (तब कारणसूचक पंक्ति के अंत में पंचमी विभक्ति लगती है।) अथ नीलादिकं मूर्तं वस्तु यथा स्वप्रतिभासिज्ञानस्यामूर्तस्य कारणं भवति, तथान्नस्रक्चन्दनाङ्गनादिकं मूर्तं दृश्यमानमेव सुखस्यामूर्तस्य कारणं भविष्यति अहिविषकण्टकादिकं च दुःखस्य । ततः किमदृष्टाभ्यां पुण्यपापाभ्यां परिकल्पिताभ्यां प्रयोजनमिति चेत् ? तदयुक्तं व्यभिचारात् । तथाहि ( श्लो. ५० ) (१०) कई बार पूर्वपक्ष = शंकाकार के प्रारंभ सूचक कोई शब्द न हो तब " इति चेत्" तक के ग्रंथ को शंकाग्रंथ = पूर्वपक्षग्रंथ समजना तथा "उच्यते" से उत्तरपक्ष जानना । व्यत्ययः कस्मान्न भवतीति चेत् ? उच्यते, अशुभक्रियारम्भिणामेव च बहुत्वात् शुभक्रियानुष्ठातृणामेव च स्वल्पत्वादिति कारणानुमानम् । (श्लो. ५०) ( ११ ) कंई बार पूर्वपक्ष के समाप्तिसूचक " इति चेत्" इत्यादि शब्द देखने को नहि मिलते और “तदयुक्तम्” इत्यादि पदो से भी उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता दिखाई देता है । ( वैसे स्थान पे "इति" शब्द से पूर्वपक्ष की समाप्ति जानना ।) अथ यथा ज्ञानावरणीयकर्मोदये ज्ञानस्य मन्दता भवति तत्प्रकर्षे च ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्तमुच्छेदो भविष्यतीति ? तदयुक्तम् द्विविधं हि बाध्यं सहभूस्वभावं सहकारिसंपाद्यस्वभावं च । (श्लो. ५२ टीका) Jain Education International I ( १२ ) कंई बार पूर्वपक्ष का "अत्र पर आह, ननु" पदो से प्रारंभ होता दिखाई देता है । समाप्तिसूचक कोई शब्द देखने को नहीं मिलता है तथा " उच्यते" से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता दिखाई देता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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