Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 691
________________ ५७८ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय जब शंकाकार की शंका की उपस्थिति का कारण सच्चा हो तब टीकाकार शंका के अंत में "सत्यम्" पद रखते है अर्थात् आपको जो शंका हुई है वह सत्य है-हो सकता है। फिर भी इस युक्ति से हमारी बात भी योग्य है ऐसा कहकर युक्ति देते होते है। पंक्ति का भावार्थ : शंका : बंध कृतक = जन्य होने के कारण किस तरह से अनादि के रुप में श्रद्धा करने के लिए उचित बनेगा? समाधान : आपकी बात सच है । जो जन्य हो वह अनादि नहीं हो सकता है। परंतु ऐसा एकांतिक कोई नियम है । जैसे अतीतकाल जन्य होने पर भी अनादि के रुप में आगम में कहा गया ही है । अर्थात् जैसे अतीतकाल जन्य होने पर भी आगम में उसको अनादि कहा गया है। वैसे बंध जन्य होने पर भी अतीतकाल की तरह अनादि कहने से दोष नहीं है। (२४) विकल्प बताने हो तब टीकाकार पहले तद्यथा - (=वह इस अनुसार से है।) यह शब्द का प्रयोग करते होते है। उत्पतेश्चत्वार एवाद्या विकल्पाः । तद्यथा सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं चेति । (श्लो. १ टीका) (२५) पूर्वपक्ष उतरपक्ष की स्थापना की शैली नीचे अनुसार से देखने को मिलती है। नन्व नित्यत्वे सत्पपि यस्य घटादिकस्य यदैव मुद्गरादिसामग्रीसाकल्यं तदैव तद्विनश्वरमाकल्पते न पुनः प्रतिक्षणं, ततो विनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकत्वमिति । तदेतदनुपासितगुरोर्वचः । (श्लो. ७, टीका) (शंकाकार की बात बिलकुल अयोग्य हो तब उत्तरपक्षकार "तदेतदनुपासितगुरोर्वचः" ऐसा कहकर खंडन का प्रारंभ करते होते है। गुरुगम से ज्ञान पाया नहीं है। उसके कारण तुम को ऐसी शंका होती है। ऐसा कहकर उसकी शंका की अयोग्यता बताते होते है। इति शंका की समाप्तिसूचक शब्द जानना। (२६) नीचे की शैली से भी पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष की स्थापना देखने को मिलती है। ननु यदि क्षणक्षयिणो भावाः, कथं तर्हि स एवायमिति ज्ञानम् । उच्यते । (श्लो. ७ टीका) (२७) अन्य वादि के मत का निर्देश करके, वह मत योग्य नहीं है - ऐसा उत्तरपक्ष कहता है तब नीचे अनुसार शैली देखने को मिलती है। मत की अयोग्यता का कारण भी तुरन्त बताते होते है। आह परः भवतु परोक्षविषयस्य प्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भाव: अर्थान्तरविषयस्य च शब्दादेस्तस्यान्तर्भावो न युक्त इति चेन्न, प्रत्यक्ष परोक्षाभ्यामन्यस्य प्रमेयस्यार्थस्याभावात्, प्रमेयरहितस्य च प्रमाणस्य प्रामाण्यासम्भवात् । (२८) पूर्वपक्षकार उत्तरपक्षकार की मान्यता में यदि ऐसा हो तो ऐसा किस तरह से इत्याकारक आपत्ति देकर उत्तरपक्ष को तोडने के लिए प्रयत्न करते होते है । तब उत्तरपक्षकार पूर्वपक्षकार की बात को सुनकर, अपनी मान्यता को सत्य सिद्ध करने के लिए सीधा उत्तर दे देते होते है। परंतु पूर्वपक्षकार के खंडनरुप में न तदयुक्तं इत्यादि कोई भी शब्द रखते नहीं है, तब नीचे अनुसार की शैली देखने को मिलती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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