________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
५८५
तु बहुश्रुतो जानन्ते" पद लिखकर अपनी तटस्थता का दर्शन करवाते है । यदि अन्य मान्यतावाले आचार्य का विधान बिलकुल शास्त्र विरुद्ध हो तो खंडन भी करते होते है।
(३) कोई बार आगमिक पदार्थविषयक भिन्न-भिन्न मान्यताओ को नयसापेक्ष विचारणा से टीकाकार श्री भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सत्यसापेक्ष सिद्ध करने का प्रयत्न भी करते होते है । (जैसे कि ज्ञानबिन्दु ग्रंथ में पू.महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजाने की हुई नयसापेक्ष विचारणा । (६२) कंई बार टीकाकार श्लोक के उपर टीका करते हो, तब श्लोकगत तत्त्व के निरुपण के स्थान पे अंतर्गत आती दूसरी प्रासंगिक बातो का वर्णन करते होते है। (कि जो प्रासंगिक वर्णन श्लोक की बातो को पुष्ट करता है ।) कंई बार बीच में कुछ श्लोक और उसके उपर की टीका में मूल बात को छोडकर प्रासंगिक बाते होती है। उसके स्थान से मूल बात के उपर वापस आते टीकाकार "प्रकृतं प्रस्तुमः" इत्यादि पद रखकर मूल बात का प्रारंभ करते होते है। (६३) एक तत्त्व के विषय में पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष की स्थापनापूर्वक बहोत असंगतिओ शंकाओ के परिहारपूर्वक चर्चा आगे चलती हो तब टीकाकार ग्रंथगौरव के भय से चर्चा का अंत लाते होते है और विशेष जिज्ञासुवर्ग को अन्य ग्रंथ देख लेने का परामर्श करते होते है। ऐसे स्थान पे चर्चा का अंत करनेवाले "अलं विस्तरेण" "कृतं तेन" "अलं प्रसङ्गेन" शब्द रखे गये हुए दिखाई देते है। (६४) पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष स्थापना की नीचे अनुसार से भी शैली देखने को मिलती है।
इत्थं च भूतले नीलो घट इत्यादिशब्दान्न शाब्दबोधः घटादिपदानां कार्यान्वितघटादिबोधे सामर्थ्यावधारणात्कार्यताबोधं प्रति च लिङ्गादीनां सामर्थ्यात्तदभावान्न शब्दबोध इति केचित् । तन्न । प्रथमतः कार्यान्वितघटादौ शक्त्यवधारणेऽपि लाघवेन पश्चात्तस्य परित्यागौचित्यात् । (मुक्तावली कारिका ८१ टीका)
यहां "इत्थं" से "इति केचित्" के बीच पूर्वपक्ष है और "तन्न" से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता है (६५) टीकाकार उस उस तत्त्व के विषय में खास ध्यान रखने की बातो को बताना चाहते हो तब "इदं तु बोध्यम्" कहकर बताते होते है।
(इदं तु बोध्यम् - यह ध्यान में रखना ।) (६६) वस्तु के अंतिम तात्पर्यार्थ को बताना चाहते टीकाकार "वस्तुतः" "वस्तुतस्तु" इत्यादि शब्द लिखकर बताते होते है। (६७) मूल श्लोक में किसी शंका का समाधान हो तब शंकाग्रंथ को श्लोक की अवरणिका के रुप में टीकाकार रखते होते है । तब नीचे अनुसार की शैली का उपयोग करते होते है। (१) अथ कस्मादस्य गोचरादिशुद्धिः मृग्यत इत्याशंक्याह -
गोचरश्च स्वरुपं च फलं च यदि युज्यते । अस्य योगस्ततोऽयं यन्मुख्यशब्दार्थयोगतः ॥५।। (योगाबिंदु)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org