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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद (५) आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ चार है(12) : १. देवायु, २. मनुष्यायु, ३. तिर्यञ्चायु और ४. नरकायु । आयुष्य कर्म की विविधता के कारण प्राणी देवादि जातियों में रहकर स्वकृत नानाविध कर्मों को भोगता एवं नवीन कर्म उपार्जित करता है। आयु कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है । आयुष्य दो प्रकार की होती है : अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । बाह्य निमित्तों से जो आयु कम हो जाती है अर्थात् नियत समय से पूर्व समाप्त हो जाती है उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं । जो आयु किसी भी कारण से कम न हो अर्थात् नियत समय पर ही समाप्त हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं । ___ (६) नाम कर्म की एक सौ तीन उत्तर प्रकृतियाँ हैं।13) : ये प्रकृतियाँ चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येक प्रकृतियाँ, त्रसदशक और स्थावरदशक । इन प्रकृतियों के कारणरूप कर्मों के भी वे ही नाम हैं, जो इन प्रकृतियों के हैं । पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों का समावेश है : १. चार गतियाँ-देव, नरक तिर्यञ्च और मनुष्य; २. पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; ३. पाँच शरीर-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; ४. तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक (तैजस और कार्मण शरीर के उपांग नहीं होते); ५. पंदरह बन्धन-औदारिक-औदारिक, औदारिक-तैजस, औदारिक-कार्मण, औदारिक-तैजस-कार्मण, वैक्रियवैक्रिय, वैक्रिय-तैजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तैजस-कार्मण, आहारक-आहारक, आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजस-कार्मण, तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मण-कार्मण; ६. पाँच संघातन-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; ७. छः संहनन-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक और सेवार्त; ८. छ: संस्थान-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन और हुण्ड; ९. शरीर के पाँच वर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और सित; १०. दो गन्ध-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध; ११. पाँच रस-तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर; १२.
आठ स्पर्श-गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निन्ध और रूक्ष; १३. चार आनुपूर्वियाँ-देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; १४. दो गतियाँ-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति। प्रत्येक प्रकृतियों में निम्नोक्त
आठ प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण और उपघात । त्रसदशक में निम्न प्रकृतियाँ हैं : त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश:कीर्ति। स्थावरदशक में त्रसदशक से विपरीत दस प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति । इस प्रकार नाम कर्म की उपर्युक्त एक सौ तीन (७५ पिण्डप्रकृतियाँ + ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ + १० त्रसदशक + १० स्थावरदशक) उत्तरप्रकृतियाँ हैं । इन्हीं प्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता हैं । इन्हीं प्रकृतियाँ का विशेष वर्णन कर्मग्रन्थों में मिलेगा । कतिपय विवेचन 'जैनदर्शन का विशेषार्थ' नामक परिशिष्ट में मील जायेगा ।
(७) गोत्र कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं(14) : उच्च और नीच । जिस कर्म के उदय से प्राणी उत्तम कुल में जन्म ग्रहण करता है उसे उच्चैर्गोत्र कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म नीच कुल में होता है उसे नीचैर्गोत्र कर्म कहते हैं । उत्तम कुल का अर्थ है संस्कारी एवं सदाचारी कुल । नीच कुल का अर्थ है असंस्कारी एवं आचारहीन कुल ।
12.नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि (त.सू. ८/११) 13. गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धन-संघातसंस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णानुपूर्व्य
गुरुलघू-पघातपराघातातपोद्योतोच्छवास-विहायोगतय: प्रत्येकशरीर-त्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च । (त.सू. ८/१२) 14. उच्चैनीचैश्च (त.सू. ८/१३)
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