Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 619
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद ९. नित्ति - कर्म की वह अवस्था निर्धात्ति कहलाती है कि, जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है । इस अवस्था में उद्वर्तना और अपवर्तना की असंभावना नहीं होती । ५०६ १०. निकाचन-कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचन है कि, जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ असम्भव होती हैं । इस अवस्था का अर्थ है, कर्म का जिस रूप में बंध हुआ उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना । ११. अबाध-कर्म का बँधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना वह उसकी अबाध - अवस्था है। इस अवस्था के काल को अबाधाकाल कहते हैं । उदय के लिए अन्य परम्पराओं में प्रारब्ध शब्द का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार सत्ता के लिए संचित, बन्धन के लिए आगामी अथवा क्रियमाण, निकाचन के लिए नियतविपाकी, संक्रमण के लिए आवापगमन, उपशमन के लिए तनु आदि शब्दों के प्रयोग उपलब्ध होते हैं । कर्म और पुनर्जन्म : कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य सम्बन्ध है । कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फलस्वरूप परलोक अथवा पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी ही पडती है । जिन कर्मों का फल इस जन्म में प्राप्त नहीं होता, उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना अनिवार्य है । पुनर्जन्म एवं पूर्वभव न मानने पर कृतकर्म का निर्हेतुक विनाश-कृतप्रणाश एवं अकृत कर्म का भोग - अकृतकर्मभोग मानना पडेगा । ऐसी अवस्था में कर्म-व्यवस्था दूषित हो जायेगी। इन्हीं दोषों से बचने के लिए कर्मवादियों को पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार करनी पडती है । इसीलिए वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों प्रकार की भारतीय परम्पराओं में कर्ममूलक पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार की गयी है । जैन कर्मसाहित्य मैं समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया गया है : मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक और देव । मृत्यु के पश्चात् प्राणी अपने कर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में जाकर जन्म ग्रहण करता है। जब जीव एक शरीर को छोडकर दूसरा शरीर धारण करने के लिए जाता है, तब आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँचा देता है । आनुपूर्वी नाम कर्म के लिए नासा -रज्जु अर्थात् 'नाथ' का दृष्टान्त दिया जाता है । जैसे बैल को इधर-उधर ले जाने के लिए नाथ की सहायता अपेक्षित होती है, उसी प्रकार जीव को एक गति से दूसरी गति में पहुँचने के लिए आनुपूर्वी नाम कर्म की मदद की जरूरत पडती है । समश्रेणी ऋजुगति के लिए आनुपूर्वी की आवश्यकता नहीं रहती अपितु विश्रेणी - वक्रगति के लिए रहती है । गत्यन्तर के समय जीव के साथ केवल दो प्रकार का शरीर रहता है : तैजस और कार्मण । अन्य प्रकार के शरीर ( औदारिक अथवा वैक्रिय) का निर्माण वहाँ पहुँचने के बाद प्रारम्भ होता है। इस तरह यहाँ संक्षिप्त में जैनदर्शन के कर्मवाद के विषय में प्रतिपादन किया गया है । जैन कर्मवाङ्मय में बडे विस्तार से इस विषय का निरूपण किया है । जिज्ञासु वर्ग को इसका अवलोकन करने का सुझाव है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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