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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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अन्यरुप में स्थिति होती हैं। यदि यह दोष रोकने के लिए ऐसा कहो कि व्युत्थानदशा में भी पुरुष स्वस्वरुप से ही प्रकाशित हैं। तो बाद में व्युत्थान और असंप्रज्ञात दोनों की इस अंश में समान अवस्था हुए, अर्थात् उस आरुढ अवस्था से कुछ फल नहीं हैं, ऐसा हुआ।
समाधान : वृत्तिसारुप्यमितरत्र ॥१-४॥(योगसूत्र) सूत्रार्थ :- (संप्रज्ञातसहित) व्युत्थानदशा में जो बुद्धि की वृत्ति वह पुरुष की वृत्ति हो रही दिखाई देती हैं।
कहने का मतलब यह है कि, जैसे सूर्य में से किरण निकलते हैं वैसे त्रिगुणमय चित्त (बुद्धि) में से उसके परिणाम विशेषरुप निकलते है। उपरांत, ये वृत्तियाँ भी त्रिगुणात्मक बुद्धिसत्त्व के परिणामरुप होने से सुख, दुःख और मोहरुप गुणवाली हैं। तथा इसलिए शांत, घोर और मूढ संज्ञा से पहचानी जाती है, वह द्रव्यरुप हैं, गुणरुप नहीं हैं। श्रीकपिल ने कहा हैं कि "भागगुणाभ्यां तत्त्वान्तरं वृत्तिः संबंधार्थं सर्पति -- वृत्ति अवयवरुप नहीं हैं, गुणरुप नहीं है परन्तु भिन्न द्रव्यरुप है क्योंकि ज्ञान के विषय के साथ संबंध करने के लिए गतिवाली होती है।" - और वृत्ति को गुणरुप ले तो, "गुण कभी भी क्रिया का आश्रय नहीं होता हैं।" यह नियम होने से वृत्तियाँ भी क्रिया के आश्रयवाली नहीं होगी। इसलिए विषय की ओर गति नहीं कर सकेगी। इसलिए श्रुति का विरोध आयेगा । ये वृत्तियाँ चित्त की ही है, पुरुष की नहीं हैं। यदि पुरुष की मानेंगे तो पुरुष परिणामी हो जायेगा । इसलिए पुरुष को कूटस्थनित्य कहनेवाली श्रुति का विरोध आता हैं । उपरांत, "साक्षी चेतां केवलो निर्गुणश्च" आत्मा तो साक्षी है, प्रकाशक हैं, इत्यादि "कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिहीींर्भीरित्येत्सर्वं मन एव"- उपर की श्रुति की पंक्ति से भी वृत्तिया चित्त की ही हैं।
यह चित्तसत्त्व सत्त्वगुण का प्रधानरुप से कार्य होने से स्वाभाविक रुप से अति स्वच्छ हैं, इसलिए उसमें चितिशक्तिरुप पुरुष का प्रतिबिंब पडता हैं। इस प्रतिबिंब से बुद्धिसत्त्व, जो स्वयं केवल जड है, वह चेतनवत् हुआ भासित होता हैं । सांख्यकारिका में भी यही अर्थ हैं कि- "तस्मात् तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिंगम्'- बुद्धि चेतनवत् होती है। इसलिए बुद्धि और पुरुष हैं, इस प्रकार से करके बुद्धि और पुरुष का अभेद भ्रम होता हैं । इस भ्रम के कारण शान्त, घोर और मूढ इस संज्ञावाली बुद्धि की वृत्तिया पुरुष की हो, ऐसा प्रतीत होता हैं । जैसे मलिन दर्पण में प्रतिबिंबित मुख मलिन हुआ दिखता हैं । श्री पंचशिखाचार्य ने कहा हैं कि "एकमेव दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम्'
अर्थात् व्युत्थान के समय बुद्धि और पुरुष के अभेद का भ्रम होता है। जब असंप्रज्ञात योग होता हैं तब चित्त की वृत्तियों का निरोध होने से पुरुष स्वस्थ बना हुआ व्यवहार में आता हैं।
प्रश्न :- इस शास्त्र में पुरुषो को नाना माने है तथा सर्व को विभु माने हैं, तो फिर एक बुद्धिसत्त्व में एक पुरुष का प्रतिबिंब पडे अथवा एक पुरुष का ही अभेदभ्रम हो और अन्य का प्रतिबिंब उसमें न पडे अथवा अन्य का अभेदभ्रम न हो, उसमें क्या निर्णायक हैं ? ।
उत्तर :- स्वस्वामिभाव नियामक हैं। बुद्धिसत्त्व अयस्कान्तसदृश हैं । अर्थात् जैसे अयस्कान्त लोह की सूई को अपनी ओर खींचकर मानव का उपकार करता है, वैसे यह बुद्धिसत्त्व भी विषयो को स्वयं में आरुढ करके पुरुष के दृश्य करता हैं । इसलिए जैसे लोहचुम्बक लोगो में उपकार्य पुरुष का 'स्व' कहा जाता हैं। तथा वह पुरुष 'स्वामी' कहा जाता हैं। वैसे यह बुद्धिसत्त्व भी 'स्व' कहा जाता है और पुरुष उसका 'स्वामी' कहा जाता हैं । यद्यपि पुरुष अपरिणामी हैं। इसलिए वास्तविक रुप से उपकार्य नहीं हैं, तो भी पुरुष चेतन होने से स्वामित्व की योग्यतावाला हैं । इसलिए पुरुष और बुद्धिसत्त्व इन दोनो में भोक्तृभोग्य की योग्यता हैं।
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