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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
इतने से ही वे संतुष्ट होते हैं। __ जडतत्त्व :- अचित्-चेतनाहीन पदार्थ को कहते हैं । यह तीन प्रकार(३९५) का होता हैं - (१) 'प्राकृत'महत्तत्त्व से लेकर महाभूत तक प्रकृति से उत्पन्न जगत् । (२) 'अप्राकत'-प्रकृति के राज्य से बहिर्भत जगत. जिसमें प्रकृति का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध नहीं हैं, जैसे भगवान् का लोक, जिसकी ‘परम व्योमन्', विष्णुपद', 'परमपद'-आदि भिन्न-भिन्न संज्ञायें श्रुतियों में हैं। (३) 'काल'-काल अचेतन पदार्थ माना जाता है। जगत् के समस्त परिणामों का जनक काल उपाधियों के कारण अनेक प्रकार का होता हैं । काल जगत् का नियामक होने पर भी परमेश्वर के लिए नियम्य (अधीन) ही हैं । काल अखण्ड रूप हैं। स्वरूप से वह नित्य हैं, परन्तु कार्यरूप से अनित्य हैं । काल का कार्य औपाधिक है। इसके लिए सूर्य की परिभ्रमणरूप किया उपाधि है।
ईश्वर :- श्री निम्बार्काचार्य के मत में ब्रह्म की कल्पना सगुण रूप से की गई हैं। वह समस्त प्राकृत दोषों (अविद्यास्मितादि) से रहित और अशेष ज्ञान, बल आदि कल्याण गुणों का निधान हैं ।(३९६) इस जगत् में जो कुछ दृष्टिगोचर है या श्रुतिगोचर हैं, नारायण उसके भीतर तथा बाहर व्याप्त होकर विद्यमान रहता हैं । (३९७) नियम्य तथा परतन्त्र सत्त्वाश्रय चिदचिद्रूप विश्व ईश्वर के ऊपर अवलम्बित होने वाला हैं । परब्रह्म, नारायण, भगवान् कृष्ण, पुरुषोत्तम आदि परमात्मा की ही संज्ञायें हैं।
ईश्वर समस्त प्राकृत (प्रकृतिजन्य) दोषों से रहित है तथा अशेष कल्याण गुणों का निधान है। प्राकृत दोषों से अभिप्राय-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेष से हैं, जो योगशास्त्र में क्लेशों के नाम से पुकारे जाते हैं। ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, तेज, वीर्य, सौशील्य, वात्सल्य, करुणा आदि गुण भगवान् में सदा निवास करते हैं। कल्याण गुणों की भी इयत्ता नहीं हैं, वे अनन्त हैं, जिनमें जगत् के उदय का कारण होना तथा मोक्ष देना प्रधान हैं। ईश्वर जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय का कारण हैं। वह कर्म के अनुसार प्राणियों को फल का वितरण करता हैं। विश्व का आधारभूत परमात्मा सर्वव्यापी, सर्वनियन्ता, निरतिशय सूक्ष्म, निरतिशय महान्, ईश्वरों का ईश्वर तथा सबका अतिक्रमण करने वाला हैं। उसके शक्ति और सामर्थ्य की अवधि नहीं हैं। वह अनन्त शक्तियों से सम्पन्न हैं, तथा अपनी इच्छा के विलास से जगत् की सृष्टि आदि व्यापार करता हैं।
जीव की दो दशायें होती हैं-बद्धदशा, जब जीव संसार के नाना दुःखों के बन्धन में पड़ा रहता है और मुक्तदशा, जब भगवान् के अनुग्रह से बन्धनों-दुःखों की निवृत्ति हो जाने से वह मुक्ति पा लेता हैं । ब्रह्म तथा जीव के बीच में भेदाभेद सम्बन्ध स्वभाविक है और ऊपर की दोनों दशाओं में नियत हैं। इसका तात्पर्य यह है कि बद्ध तथा मुक्त दोनों दशाओं में जीव ब्रह्म से भिन्न भी रहता है और अभिन्न भी रहता है। अतः दोनों का भेदाभेद स्वाभाविक है। बद्ध दशा में तो सर्वज्ञ, व्यापक ब्रह्म से अल्पज्ञ तथा एक-देशव्यापी जीव की भिन्नता स्पष्टतः प्रतीत होती हैं, परन्तु इस दशा में भी दोनों में अभिन्नता रहती हैं। बद्धदशा में जीव की न तो ब्रह्म से अलग स्थिति है और न अलग प्रवृत्ति ही होती हैं। जिस प्रकार पेड़ से पत्तों की, प्रदीप से प्रभा की, गुणी से गुणों की तथा प्राण से इन्द्रियों की न तो अलग स्थिति हैं और न अलग कार्यों में प्रवृत्ति हैं, उसी प्रकार जीव तथा ब्रह्म में भी अभिन्नता समझनी
(३९५) अत्राकृतं प्राकृतरुपकं च कालस्वरुप तदचेतनं मतं । मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समेऽपि तत्र (दशश्लोकी-३) (३९६) स्वभावतोऽपास्तसमस्तदोषमशेषकल्याणगुणैकराशिम् । व्यूहागिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम् ।। (दशश्लोकी-४) (३९७) यच्च किञ्चिज्जगत्यस्मिन् दृश्यते श्रूयतेऽपि वा । अन्तर्बहिश्च तत् सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः । (सिद्धान्तजाह्नवी, पृ-५३ में उद्धृत्त)
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