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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
निर्वाहकमात्र होता हैं, पर 'भेद' वास्तव होता है। भगवान् का जीव तथा प्रकृति से पृथक् होना भेद-साध्य है, परन्तु भगवान् का अपने गुणों तथा विग्रहों से पृथक् होना 'विशेषजन्य' हैं क्योंकि वस्तुतः उनके गुण तथा विग्रह भगवान् से एकाकार ही हैं। इसी अचिन्त्यशक्ति के कारण भगवान् मूर्त होकर भी विभु है।
भगवान् की शक्तिया :- भगवान् अचिन्त्याकार अनन्त शक्तियों से सम्पन्न हैं, परन्तु तीन ही शक्तिया मुख्य हैं-स्वरूपशक्ति, तटस्थशक्ति और मायाशक्ति । स्वरूपशक्ति को चित्शक्ति तथा अन्तरंग शक्ति भी कहते हैं, क्योंकि वह भगवद्रूपिणी ही है। सत् तथा आनन्द के कारण भगवान् की यह स्वरूपशक्ति एक होने पर भी त्रिविध रूपों में अभिव्यक्त होती हैं।-(१) 'सन्धिनी-इसके बलपर भगवान् स्वयं सत्ता धारण करते हैं और दूसरों को सत्ता प्रदान करते हैं, तथा समस्त देश, काल एवं द्रव्यों में व्याप्त रहते हैं। (२) 'संवित्'- चिदात्मा भी भगवान् इसी से स्वयँ जानते हैं तथा दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हैं। (३) 'ह्लादिनी'-इससे भगवान् स्वयं आनन्दित होते हैं और दूसरों को आनन्द प्रदान करते है। जो शक्ति परिच्छिन्न-स्वभाव, अणुत्वविशिष्ट जीवों के आविर्भाव का कारण बनती है वह 'तटस्था' या जीवशक्ति कहलाती है। मायाशक्ति से प्रकृति तथा जगत् का आविर्भाव-साधन होता है। इन तीनों शक्तियों के समुच्चय को 'पराशक्ति' कहते हैं। भगवान् ‘स्वरूप शक्ति से जगत् के निमित्त कारण
और माया-जीव शक्तियों से उपादान कारण हैं । इस प्रकार माध्वमत के विपरीत वे केवल निमित्त न होकर अभिन्न-निमित्तोपादान कारण हैं। जगत् में धर्म की अभिवृद्धि तथा अधर्म के विनाश के लिए भक्तों की रुचि के अनुसार ये ही भगवान् भिन्न-भिन्न अवतार धारण कर प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् ही हैं अवतार नहीं (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्-श्रीमद्भाग० १।३।२८)।
• जगत् :- चैतन्यमत में जगत् प्रपञ्च नितरां सत्यभूत पदार्थ है क्योंकि यह सत्यसंकल्प सर्ववित् हरि की बहिरङ्ग शक्ति का विलास हैं । श्रुति तथा स्मृति एक स्वर से जगत् की सत्यता प्रतिपादित करती है। जगत् की सत्यता के विषय में ईशावास्य-उपनिषद् कहता है कि भगवान् ने शाश्वतकाल तक यथार्थ भाव से पदार्थों का निर्माण किया, जिससे पदार्थों का सत्य होना प्रमाणित होता है। विष्णुपुराण में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यह अखिल जगत् जन्म तथा नाश आदि विकल्पों से युक्त होने पर भी अक्षय तथा नित्य है। महाभारत भी जगत् को सत्य तथा भूतमय मानता है। जगत् सच्चा अवश्य हैं, तथापि इसे अनित्य कहने का तात्पर्य यही है कि दुःख बहुल होने से साधक को इससे विरक्त रहना चाहिए । वैराग्य के लिए ही संसार को अनित्य कहा गया है। सृष्टिकाल में यह जगत् भगवान् में अभिव्यक्त रूप से वर्तमान रहता है, परन्तु प्रलयकाल में भी यह जगत् अव्यक्त रूप से भगवान् में ही रहता है। रात के समय चिड़िएँ जंगल के पेडों में छिप कर रहती हैं, अर्थात् वे वहाँ रहती अवश्य हैं, परन्तु काल के वश उनकी अभिव्यक्ति नहीं होती । इसी प्रकार यह जगत् भी प्रलय दशा में अव्यक्त रूप से भगवान् में रहता है। प्रमेयरत्नावली (३।२) में इसलिए प्रलय दशा में जगत् की उपमा 'वनलीनविहङ्गवत्' कह कर दी गई हैं।
चैतन्य मत की दार्शनिक दृष्टि अचिन्त्यभेदाभेद की है। इसका विशिष्ट वर्णन श्रीजीवगोस्वामी ने इस प्रकार किया है। वे कहते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण में उनकी स्वरूपादि शक्तियों का अभिन्न रूप से चिन्तन करना अशक्य है। वह भिन्न प्रतीत होता है। उधर उनसे भिन्न रूप से चिन्तन करना भी अशक्य है फलतः वह अभिन्न प्रतीत होता है। इस प्रकार शक्तिमान् (भगवान्) तथा शक्ति (स्वरूपादि) में भेद और अभेद दोनों सिद्ध होते हैं। ये दोनों ही अचिन्त्य शक्ति के कारण अचिन्तनीय हैं। इस प्रकार अचिन्त्य शक्ति के कारण यह प्रपञ्च न तो भगवान् के साथ बिल्कुल भिन्न ही प्रतीत होता है और न अभिन्न ही। इसी विलक्षण दृष्टिकोण के कारण यह मत अचिन्त्यभेदाभेद के नाम से दार्शनिक जगत् में प्रख्यात हैं।
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