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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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स्फुरित होता हैं। इसलिए वे भावी उपचरित संसर्गवाले हैं। अतिव्याप्ति, अव्याप्ति इत्यादि दोषो को दूर करने पर भी असंभव दोष बताते हैं। और उसका निवारण करते हैं।
शंका :- उपरका लक्षण अतिव्याप्ति से रहित हैं। उपरांत, ईश्वर एक होने से अव्याप्ति से भी रहित हैं। तो भी असंभव दोषवाला हैं। क्योंकि ईश्वर स्वयं पुरुष होने से निर्गुण, निष्क्रिय और अपरिणामी हैं । इसलिए ईश्वर में ईशितृत्व होना संभवित नहीं हैं। तथा वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् भी नहीं होंगे।
समाधान :- यद्यपि ईश्वर स्वरुपतः शुद्धचितिशक्तिरुप हैं तो भी उसे एक चित्त होता हैं । यह चित्त शुद्धसत्त्वा माया के शुद्धांश का बना हुआ हैं। और इसलिए योगी के चित्त से विलक्षण हैं। योगी का चित्त प्रयत्न से शुद्धांशवाला बनता हैं और ईश्वर का तो अनादिकाल से शुद्धांशवाला ही होता हैं। इस चित्त के योग से ईश्वर में ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति होती है, उस चित्त के साथ ईश्वर को दूसरे जीवो की तरह अविद्या निमित्त स्वस्वामिभावसंबंध नहीं हैं, परन्तु जगतरुप प्रवाह में खिचे जाते पुरुषो का ज्ञानादि उपदेश द्वारा उद्धार करने की ईच्छारुप निमित्त से ईश्वर ने ईस चित्त का ग्रहण किया हैं।
ऐसा होने से जैसे स्त्री इत्यादि के वेश को उस रुप से जानकर ग्रहण करनेवाला शैलूष (नाटक का पात्र) इसलिए बंधनको नहीं पाता हैं । ऐसे वह चित्तरुप माया को मायारुप जानकर अपनी इच्छा से ग्रहण करनेवाला ईश्वर भी उससे बंधन को नहीं पाते हैं। ईश्वर अपनी ईच्छा से एक चित्त का ग्रहण करते हैं। ऐसा कहने में इच्छा से अनन्तर चित्त का ग्रहण और चित्त के बिना इच्छा का अभाव होने से चित्त के ग्रहण से अनन्तर इच्छायें होने पर
न्योन्याश्रय दोष नहीं आता हैं। क्योंकि सर्ग अनादि हैं। यदि सर्ग को प्रथमता होती तो इस प्रश्न का अवकाश रहता कि ईश्वरने प्रथम चित्त का ग्रहण किस तरह से किया? परन्तु वैसा तो है नहि । जगतप्रवाहसर्गप्रवाह अनादि हैं। इसलिए एक सर्ग के संहार समय "इस प्रलय का अवधि आने पर अर्थात् सर्गान्तर की सष्टि होने के समय मजे कछ खास शद्धांशवाला चित्तसत्त्व ग्रहण करना हैं।" ऐसा संकल्प करके ईश्वर सष्टि का संहार करते हैं। और संकल्प की वासनावाला होकर चित्त भी उस समय प्रधान में- प्रकृति में लीन हो जाता हैं। उसके बाद प्रलयकाल पूरा हो जाये तब जैसे रात में सोया हुआ मनुष्य सुबह जल्दी उठने के निश्चय के साथ सोये तो वह निश्चय के बल से उचित समय पर उठ जाता हैं । वैसे पूर्वसर्ग के अवधि पर किये हुए प्रणिधानरुप दृढ संकल्पवाला ईश्वर का चित्त उस संकल्पवशात् इस सर्ग के प्रारंभ में ईश्वर को प्राप्त होता हैं। और उसके बाद उस चित्त द्वारा जगत् की उत्पत्ति ज्ञानादि का ब्रह्मा इत्यादि को उपदेश इत्यादि ईश्वर करते हैं । पुनः उस सर्ग का अवधि आने पर पूर्ववत् प्रणिधान करते हैं। तथा उस प्रणिधानवशात् पुनः नये सर्ग के आरंभ में उस चित्त की प्राप्ति होती हैं। इस प्रकार अनादिकाल से प्रणिधान और चित्त का ग्रहण होता होने से बीजांकुरवत् चलता ही रहता
हैं।
प्रश्न :- ईश्वर को प्रकृष्ट सत्त्ववाला चित्त हैं, उसमें क्या प्रमाण हैं ?
उत्तर :- तदैक्षत सोऽकामयत्, तदात्मानं स्वयमकुरुत । स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च, यः सर्वज्ञः सर्वविद् ॥ इस वेद की श्रुति से ईश्वर को प्रकृष्ट चित्त हैं, वह सिद्ध हुआ । सूत्र में एकवचन से वह व्यक्तिपरक है। और वह व्यक्ति एक ही हैं । अर्थात् ईश्वर एक ही हैं।
प्रश्न :- ईश्वर में ज्ञान किस प्रकार का हैं ? उत्तर :- तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । ॥(१-२५)॥
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