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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
लौकिक अनुभव जीव को आनन्दरूप सिद्ध करता हैं । हृत्प्रदेश में निवास करने के कारण वह अणु हैं । मुण्डक (३/१/९) और श्वेताश्वतर के आधार पर समग्र वैष्णव सम्प्रदाय जीव को अणु मानते हैं। जीव ईश्वर के द्वारा नियमित किया जाता हैं। जीव में एक विशेष गुण 'शेषत्व' विद्यमान हैं, अर्थात् वह अपने कार्यकलापों के लिए ईश्वर पर सर्वतोभावेन अवलम्बित हैं; ईश्वरानुग्रह के बिना अपने कर्तव्यो का सुचारु सम्पादन नहीं कर सकता। जीव की विशिष्टाद्वैतवादी कल्पनायें अद्वैतवादियों से अनेक बातों में नितान्त भिन्न ठहराती हैं । जहाँ अद्वैती आत्मा को विभु बतलाते हैं, वहाँ विशिष्टाद्वैती उसे अणु मानते हैं । अद्वैतमत में जीव स्वभावत: एक हैं, परन्तु देहादि उपाधियों के कारण वह नाना प्रतीत होता हैं, पर रामानुज मत में जीव अनन्त हैं और वे एकदूसरे से नितान्त पृथक् हैं ।
देह तथा देही के समान जीव ब्रह्म से कथमपि अभिन्न नहीं हैं। ब्रह्म से जीव नितान्त भिन्न हैं, जीव दुःखत्रय से नितरां पीडित हैं। ऐसी दशा में ब्रह्म के साथ उसकी अभिन्नता कैसे मानी जा सकती हैं ? "ब्रह्म जगत् का कारण तथा करुणाधिप (जीव) का अधिपति हैं'; 'जो आत्मा के भीतर संचरण करता हैं वही अन्तर्यामी अमृत तुम्हारा आत्मा हैं'; दोनों अज हैं-एक ईश हैं, दूसरा अनीश; एक प्राज्ञ हैं, दूसरा अज्ञ' - आदि भेद मूलक श्रुतियाँ जीव को ब्रह्म से नितान्त पृथक् स्वतन्त्र बतलाती हैं । अतः दोनों का अभेद बतलाना वास्तव नहीं हैं। ब्रह्म अखण्ड हैं, तब जीव को उसका खण्ड बतलाना कहाँ तक उचित हैं ? रामानुज का कहना हैं कि चिनगारी जिस प्रकार अग्नि का अंश हैं, देह देही का अंश हैं; उसी प्रकार जीव ब्रह्म का अंश हैं। अभेद श्रुतियों का भी यही तात्पर्य हैं कि जीव ब्रह्मव्याप्य तथा ब्रह्म का शरीर हैं। अतः जीव-ब्रह्म में अंशांशीभाव या विशेषण विशेष्यभाव सम्बंध हैं।
जीव तथा ईश्वर का सम्बन्ध रामानुज मत में अभेदसूचक एकता नहीं हैं। जीव हैं अल्पज्ञ तथा अनन्त और ईश्वर हैं सर्वज्ञ तथा एक। ऐसी दशा में दोनों का अभेद कैसे बन सकता हैं ? इसके उत्तर में श्री रामानुजाचार्य का कथन है कि ईश्वर प्रत्येक जीव में व्याप्त हैं और भीतर से उसका नियमन करता हुआ 'अन्तर्यामी' हैं। इसी दृष्टि से दोनों में अभेद माना जा सकता हैं। जिस प्रकार अंश का अस्तित्व अंशी पर निर्भर रहता हैं, और गुण का द्रव्य पर, उसी प्रकार जीव का अस्तित्व ईश्वर के ऊपर निर्भर रहता हैं। क्योंकि जीव हैं अंश और ईश्वर हैं अंशी; जीव हैं नियम्य और ईश्वर हैं नियामक; जीव हैं आधेय और ईश्वर है आधार । इस तरह के सम्बन्ध होने से स्पष्ट है कि जीव ईश्वर के ऊपर आश्रित तथा निर्भर रहता हैं। ऐसी दशा में ईश्वर की शरण में गये बिना जीव का निस्तार तथा कल्याण नहीं हो सकता। वह अशेष गुणों का आकार हैं, दया का समुद्र हैं तथा करुणा का निधि हैं; वह जीव की दीन दशा को देखकर स्वयं द्रवित होता हैं । अतः जीव-ईश्वर के इस सम्बन्ध निर्णय से स्पष्ट हैं कि श्री रामानुजाचार्य के अनुसार प्रपत्ति (शरणागति) ही जीव की आध्यात्मिक उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।
इस प्रसंग में 'तत्त्वमसि' महावाक्य की रामानुजीय व्याख्या भी ध्यान देने योग्य हैं । 'त्वं' पदार्थ साधारणतया जीव का प्रतीक माना जाता हैं, पर विशिष्टाद्वैत मत में 'त्वं' का अर्थ हैं - अचिद्विशिष्ट जीव- शरीरवाला ब्रह्म । 'तत्' पद से अभिप्राय हैं सर्वज्ञ, सत्यसंकल्प, जगत्- कारण ईश्वर से । इस प्रकार इस महाकाव्य का अभिप्राय हैं कि अन्तर्यामी ईश्वर तथा विश्वप्रपञ्च का निर्माता ईश्वर दोनों की तात्त्विक एकता हैं, अर्थात् एक विशेषण से विशिष्ट ईश्वर तदन्य विशेषण से विशिष्ट ईश्वर के साथ नितान्त अभिन्न हैं । अतः एकता विशिष्ट ईश्वर की हैं। (विशिष्ट्योरैक्यम्) । इसी कारण श्री रामानुजाचार्य सिद्धान्त की 'विशिष्टाद्वैत' संज्ञा दी गई हैं।
सृष्टि-विचार :- सृष्टि के विषय में श्री रामानुजाचार्य उपनिषदों के सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन करते हैं ।
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