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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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सर्वव्यापी ब्रह्म में चित् और अचित् दोनों तत्त्व विद्यमान रहते हैं। इनमें चित् जीव का द्योतक है और अचित् जडतत्त्व या प्रकृति का । वे श्वेताश्वतर उपनिषद, पुराण तथा स्मृति-ग्रन्थों में वर्णित प्रकृति के रूप को स्वयं स्वीकार करते हैं । श्वेताश्वतर के अनुसार प्रकृति एक हैं, अनादि (अजा) है तथा अपने समान ही बहुत सी प्रजाओं की सृष्टि करने वाली हैं। इतना तो सांख्य भी मानता हैं, परन्तु रामानुज तथा सांख्यमत में इस बात को लेकर भेद हैं कि श्री रामानुजाचार्य प्रकृति को ईश्वर का अंश तथा ईश्वर के द्वारा प्ररिचालित मानते हैं। प्रकृति स्वयं सृष्टि नहीं करती (जैसा सांख्य मानता हैं); प्रत्युत ईश्वर की अध्यक्षता में ही वह सृष्टि का कार्य करती हैं। सर्वशक्तिमान् ईश्वर की इच्छा से सूक्ष्म प्रकृति स्वयं तीन प्रकार के तत्त्वों तेज, जल, तथा पृथिवी में विभाजित हो जाती हैं, जिनमें क्रमशः सत्त्व, रजस् तथा तमोगुण पाये जाते हैं। इन्हीं तीनों तत्त्वों के नाना प्रकार के संयोग तथा मिश्रण के फल से जगत् के स्थूल पदार्थ उत्पन्न होते हैं और इसीलिए ये तीनों तत्त्व संसार के प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान रहते हैं। इस मिश्रणक्रिया का नाम त्रिवृत्त-करण हैं । इसका मूलतः संकेत छान्दोग्य-उपनिषद् में पाया जाता हैं, जिसे श्री रामानुजाचार्य ने अपने सिद्धान्त के लिए अपनाया हैं।
ईश्वर अपनी माया शक्ति के द्वारा जगत् की सृष्टि करता हैं । माया क्या हैं ? माया का अर्थ हैं-अद्भूत पदार्थों की सृष्टि करनेवाली शक्ति । इस माया से युक्त होने से श्वेताश्वतर में ईश्वर को मायावी कहा गया हैं। इसे श्री रामानुजाचार्य अक्षरशः मानते हैं, परन्तु ईश्वर को मायावी कहने का इतना ही तात्पर्य हैं कि उसकी सृष्टिलीला अद्भूत तथा विचित्र होती हैं । ईश्वर की यह सृष्टि उतनी ही वास्तविक तथा सत्य हैं, जितना स्वयं ईश्वर । शङ्कर मत के समान रामानुज मत इस संसार को काल्पनिक तथा असत्य नहीं मानते । जहाँ श्री शङ्कराचार्य विवर्तवाद के सिद्धान्त को सृष्टिव्यापार के लिए सत्य मानते हैं, वहाँ रामानुजाचार्य परिणाम के सिद्धान्त को ही ठीक मानते हैं । संसार तथा सृष्टि भ्रममात्र हैं-इस मत को श्री रामानुज नहीं मानते । उनके मत में ज्ञानमात्र ही सत्य होता हैं और कोई भी वस्त मिथ्या नहीं हैं इसी तथ्य के आधार पर वे सटिको सत्य मानते हैं। समस्त वैष्णव आचार्य श्री शङ्कराचार्य के मायावाद का खण्डन करने में अपनी शक्ति लगाते हैं। श्री रामानुजाचार्य भी मायावाद का खण्डन अनेक तर्को के बल पर करते हैं, तथा अद्वैतवादियों ने भी अपने मत का समर्थन अपनी युक्तियों के सहारे किया हैं। यह खण्डन-मण्डन का क्रम आज भी चलता हैं।
जगत् :- ज्ञानशून्य विकारास्पद वस्तु को 'अचित्' कहते हैं । लोकाचार्य ने (तत्त्व त्रय, पृ० ४१) अचित् तत्त्व के तीन भेद माने हैं-शुद्धसत्त्व, मिश्रसत्त्व और सत्त्वशून्य । शुद्धसत्त्व का दूसरा नाम नित्यविभूति हैं। इस सत्त्व की कल्पना श्री रामानुजाचार्य दर्शन की विशेषता हैं । मिश्रसत्त्व तमोगुण तथा रजोगुण से मिश्रित होने के कारण प्राकृतिक सृष्टि का उपादान हैं। इसी का दूसरा नाम माया, अविद्या या 'प्रकृति' हैं । सत्त्वशून्य तत्त्व 'काल' कहलाता हैं। शुद्धसत्त्व को शुद्ध कहने का तात्पर्य यह हैं कि इसमें रजोगुण तथा तमोगुण का लेशमात्र भी संसर्ग नहीं रहता। यह नित्य, ज्ञानानन्द का जनक निरवधिक तेजोरूप द्रव्यविशेष हैं । इस कारण ईश्वर, नित्य पुरुषों तथा मुक्त पुरुषों के शरीर, भोगसाधन वन्दनकुसुमादि तथा भोगस्थान स्वर्गादिको की उत्पत्ति भगवान् के संकल्पमात्र से होती हैं। ईश्वर तथा नित्य पुरुषों के शरीर भगवान् की नित्येच्छा से सिद्ध हैं, मुक्त पुरुषों का शरीर भगवान् के संकल्प से उत्पन्न होता हैं । भगवान् के व्यूहविभवादि रूप इसी शुद्ध सत्त्व के उपादान से निर्मित होते हैं वे प्रकृतिजन्य न होने से अप्राकृत हैं। श्री रामानुजाचार्य का यह मुख्य सिद्धान्त हैं कि, आत्मा बिना शरीर के किसी भी अवस्था में अवस्थित नहीं रह सकता। अत: मुक्तावस्था में भी आत्मा को शरीर प्राप्त होता हैं, परन्तु शुद्ध सत्त्व का बना हुआ वह शरीर अप्राकृत
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