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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
पदार्थ दृष्ट हो या अदृष्ट, सभी अपनी कारणभूत सामग्रीयों से उत्पन्न होते हैं, मात्र दृष्टिकाल में ही उत्पन्न नहीं होते, भले ही उन पदार्थो का दर्शन कभी होता हो या नहीं, इस सिद्धान्त को सृष्टिदृष्टिवाद कहा जाता हैं । ३००)
भामतीकार आचार्य श्रीवाचस्पति मिश्र ने भी दृष्टिसृष्टिवाद का समर्थन किया हैं । उनके मत में मूलाविद्या और संस्कार रुप अपर अविद्या का आश्रय जीव हैं। अन्तःकरण उपाधि से अवच्छिन्न प्रत्यगात्मा चेतन, कर्ता, भोक्ता कार्य-कारणरुप अविद्याद्वय का आधार हैं। अहंकारास्पद संसारी, सभी अनर्थो का भाजन जीवात्मा ही परस्पर अध्यास का उपादान हैं और उसका उपादान अध्यास हैं। बीज और अंकुर न्याय के समान अविद्या तथा जीव एक दूसरे पर आश्रित रहते हैं । (३०१) आगे भामती में दृष्टिसृष्टिवाद का समर्थन इस प्रकार किया गया हैं कि, अविद्या ब्रह्म की आश्रिता नहीं हैं, किन्तु जीव की आश्रिता और अनिर्वचनीया(३०२) हैं। श्रीप्रकाशानन्द ने ऐसा ही वर्णन, सिद्धान्तमुक्तावली में किया हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त कार्यजाति चाहे वह ज्ञान हो या ज्ञेय सभी अविद्यक ही हैं। अतः सभी जागतिक पदार्थ प्रतीति(३०३) समकालिक हैं । वस्तुतः अनित्य पदार्थ की नित्यता तो मात्र वर्तमान के कारण सिद्ध हो रही हैं, भूत और भविष्य तो सदा उसे अनित्य ही मानते हैं। __ अविद्या जीवाश्रया हैं । (३०४) श्रीप्रकाशानन्द के इस मत को आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती ने समर्थन करते हुए कहा हैं कि-जीवाश्रित ही अविद्या हैं। इस पक्ष में अविद्या में प्रतिबिंबित चैतन्य जीव हैं, या अविद्यावच्छिन्न चैतन्य जीव हैं अथवा अविद्या के द्वारा कल्पित भेदो में कल्पित चैतन्य जीव हैं। पूर्वोक्त इन तीनों पक्षो में अन्योन्याश्रय दोष हैं । तब यह विचारणीय हैं कि इन अन्योन्याश्रय दोषो का दर्शन उत्पत्ति में करते हैं या ज्ञान में अथवा स्थिति में करते हैं ? उत्पत्ति में - अर्थात् अज्ञान का आश्रय जीव हैं, इस पक्ष में जीव की उत्पत्ति अज्ञान के अधीन हैं। अज्ञान निराश्रित नहीं रह सकता, फिर अज्ञान से जीव उत्पन्न कैसे हुआ? क्योंकि जीव के स्वरुप की उत्पत्ति, अज्ञान के अधीन हैं ओर अज्ञान का आश्रय जीव हैं। किन्तु उत्पत्ति में यह दोष नहीं, क्योंकि जीव और अज्ञान दोनों अनादि हैं। यदि ज्ञान में अन्योन्याश्रयत्व दोष दिया जाय, तब भी सम्भव नहीं हैं, यथा अज्ञान का भान, चित्त के द्वारा होता हैं, तथापि चित्त अज्ञान के अधीन नहीं हैं, क्योंकि चित्त स्वयं प्रकाश हैं। अतः उसके ज्ञान के लिए किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं हैं। जीव का स्वरुप किसी भी पक्ष में, अज्ञान रुप उपाधि के हटने पर चिद्रुपत्व ही हैं । अर्थात् अज्ञान, साक्षीरुप जीव में भासित होने पर भी चिद्रुप जीव अज्ञान से भासित नहीं होता । इसलिए ज्ञान में परस्पर आश्रयत्व दोष नहीं हैं । तृतीय पक्ष भी अयुक्ति संगत हैं, क्योंकि यहाँ दो विकल्प हो सकते हैं प्रथम तो परस्पर आश्रयाश्रयीभाव, दूसरा परस्परसापेक्षस्थितिभाव अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा में स्थित रहना, दोनों ही विकल्प व्यर्थ हैं, क्योंकि अविद्या को जीव की आश्रिता मानने पर भी जीव, अज्ञान के आश्रित नहीं हैं, और अज्ञान निराश्रित नहीं रह सकता, जबकि चित् स्वयं सिद्ध हैं और अविद्याश्रित नहीं हैं। दूसरा पक्ष
(३००) तुलना करें- यथा स्वप्ने एक एव स्वप्नदृक् परमार्थ-सत्यः अन्ये तभ्रमकल्पिता: सर्वे एवं जागरेऽपि एक एव परमार्थ-सत्या । वे.सि.मु.का.पृ.९. (३०१) अन्तःकरणाद्यवच्छिन्नः प्रत्यगात्मा इदमनिदंरूपश्चैतन:कर्ता भोक्ता कार्यकारणाविद्याद्वयाधारः अंहकारास्पदं संसारी सर्वानर्थसंरम्भाजनं जीवात्मा इतरेतराध्यासोपादानः । -भामती अध्यासभाष्य-तुलना करेंजीवाश्रया ब्रह्मपदाह्यविद्या, वे.सि.मु.का.३. (३०२) अविद्या न ब्रह्माश्रया किन्तु जीवे, सा त्वनिर्वचनीयेत्युक्तम्, तेन नित्यशुद्धमेव |-भामती-१.१.४. (३०३) ततो ब्रह्मातिरिक्तं कृत्स्नकार्यजातं ज्ञानं ज्ञेयरुपं तत्सर्वमविद्यकमेव इति प्रातीतिकमेव सत्वं सर्वस्येति सिद्धम् ।-वे.सि.मु.का.पृ. १४ (३०४) जीवाश्रया ब्रह्मपदा ह्यविद्या तत्त्वविन्मता । तद्विरुद्धमिदं वाक्यमात्मा त्वज्ञानगोचरा ॥वे.सि.मु.का.३
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