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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
अद्वैतशास्त्रों में यथोक्त प्रकार से प्रामाण्य हैं। आभास, प्रतिबिम्ब और अवच्छेदवादों का अभिप्राय जीव, ईश्वर एवं ब्रह्म की संगति, अद्वैतमत के आधार पर लगाना हैं । (२८८)
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श्री मधुसूदन सरस्वती ने सिद्धान्त बिन्दु में तीनो ही वादो के स्वरुप का इस प्रकार प्रतिपादन किया हैं। शुद्धचैतन्य आभास के रुप में बाधित हो जाता हैं। इस बन्धन की निवृत्ति से मोक्ष होता हैं, इसमें कोई असमंजस नहीं हैं, या यों कहिये कि आभास से पृथक् चैतन्य ही तत्त्वमसि पद का वाच्यार्थ हैं। त्वम् पद वाच्य के अज्ञानरुपी एक देश के परित्याग के कारण जहदजहल्लक्षणा के द्वारा ही, अखण्डार्थ का बोध होता हैं । अतः कोई दोष नहीं हैं । यही पक्ष आभासवाद के नाम से कहा जाता हैं । (२८९)
अज्ञानोपहित बिम्ब चैतन्य ईश्वर और अन्तःकरण तथा अज्ञान के संस्कार से प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव कहलाता हैं, ऐसा विवरणकार का मत हैं । (२९०) आभासवाद और प्रतिबिम्बवादों के प्रमुख भेदों का कारण यह हैं कि प्रतिबिम्ब, बिम्बवत् सत्य मान लिया गया, परन्तु इसका अभिप्राय "जीवो ब्रह्मैवनापरः" हैं। आभास बाद में आरोपित अज्ञान, सत्यवत् प्रतीत होता हैं। जैसे किसी स्वच्छ दर्पण में लाल कपडे के प्रतिबिम्ब से, दर्पण ही लाल दिखाई पडता हैं। आभासवाद और प्रतिबिम्बवाद में बुद्धि भेद के कारण जीव के नानात्व को स्वीकार किया गया हैं । श्रीवाचस्पति मिश्र के अनुसार, अज्ञान के द्वारा विषयीकृत चैतन्य, ईश्वर और अज्ञानाश्रयीभूत जीव होता हैं। अवच्छेदवाद में अज्ञान के नानात्व के कारण, जीवों का नानात्व होता हैं । परंतु प्रपंचभेद प्रतिजीव के अनुसार होता हैं । जीव ही अपने अज्ञान से उपहित होने के कारण, जगत् का उपादान कारण हैं और ब्रह्म के सादृश्य अथवा अंश होने के कारण, चिन्तन, मनन के द्वारा पुनः स्मरण से ब्रह्म में लीन हो जाता हैं। ईश्वर ही इस प्रपंच और जीव का अधिष्ठान हैं। इसे ही अवच्छेदवाद कहते हैं । (२९१)
एक जीववादी या दृष्टिसृष्टिवादी के अनुसार अज्ञान से उपहित बिम्बचैतन्य को ईश्वर और अज्ञान में प्रतिबिम्बित चैतन्य को जीव कहा जाता हैं। अज्ञान से अनुपहित अर्थात् सर्वथा पृथक् शुद्ध चैतन्य को ब्रह्म कहा जाता हैं । दृष्टिसृष्टिवाद में जीव ही अपने अज्ञानवशात् जगत का उपादान और निमित्तकारण बनता हैं । इस जगत् में दृश्य पदार्थों की प्रतीति ही सत्य प्रतीति का कारण हैं । देहभेद होने के कारण जीवो में भेद मानना, महान भूल हैं । एकदेह के स्वकल्पित अज्ञान की निवृत्ति गुरुशास्त्रादियों के श्रवणमननादियों के द्वारा सम्भव हैं, और तदनन्तर उस देहाश्रित जीव की मुक्ति होती हैं। जिस जिस अन्त:करण में ज्ञान का उदय होगा, उस उसकी मुक्ति होगी, शेष जीवो का बन्धन । शुकदेवादि ऋषियों का मोक्षश्रवण तो अर्थवाद भर हैं ।(२९२)
( २८८ ) पञ्चदशी चित्रदीप.पृ. १८ पर अच्युतराय का भाष्य । ( २८९ ) तेन शुद्धचैतन्याभास एव बन्ध: । तन्निवृत्तिश्च मोक्ष इति न किञ्चिदसमञ्जसम् । अथवाभासविविक्तचैतन्यमपितत्त्वमसिपदवाच्यम् । तेनवाच्यैक- देशस्यत्यागादस्मिन् पक्षे जहदजहलक्षणैवेति न कोऽपि दोष: । अयमेव पक्षः आभासवाद इति गीयते । सि.बि. - १.१ (२९० ) अज्ञानोपहितं बिम्बचैतन्यमीश्वरः । अन्तःकरण-तत्संस्कारावच्छिन्नाज्ञानप्रतिबिम्बितं बिम्बचैतन्यं जीव इति विवरणकारा: । सि. बिं. १. १ ( २९१ ) अज्ञानविषयीकृतं चैतन्यमीश्वरः । अज्ञानाश्रयीभूतं च जीव इति वाचस्पतिमिश्रः अस्मिश्च पक्षे अज्ञाननानात्वात् जीवनानात्वम् । प्रतिजीवं प्रपञ्चभेदः । जीवस्यैव स्वाज्ञानोपहिततया जगदुपादानत्वात् । प्रत्यभिज्ञा चापि सादृश्यात् । ईश्वरस्य सप्रपञ्चजीवाविद्याधिष्ठानत्वेन कारणत्वोपचारादिति । अयमेव चावच्छेदवाद: । सि. बि. - १-१ (२९२) अज्ञानोपहितं बिम्बचैतन्यमीश्वरः । अज्ञानप्रतिबिम्बचैतन्यं जीवः इति वा अज्ञानानुपहितं शुद्धचैतन्यमीश्वरः अज्ञानोपहितं जीव इति वा मुख्यो वेदान्तसिद्धान्तः एकजीववादाख्यः । इदमेव दृष्टिसृष्टिवादमाचक्षते । अस्मिश्च पक्षे जीव एव स्वाज्ञानवशात् जगदुपादानं निमित्तं च । दृश्यं सर्वं प्रातीतिकम्। देहभेदाच्च जीवभेदभ्रान्तिः । एकस्यैव च स्वकल्पितगुरुशास्त्रद्युपहितश्रवणमननादिदादयदात्मसाक्षात्कारे सति मोक्षः । शुकादीनां च मोक्षश्रवणं त्वर्थवादः (सि. बिं. १- १)
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