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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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प्रश्न :- अनुमिति का करण कौन हैं ? उत्तर :- अनुमिति के करण को बताते हुए वेदांतपरिभाषा में कहा हैं कि- अनुमितिकरणं च व्याप्तिज्ञानम् । तत्संस्कारोऽवान्तरव्यापारः न तु तृतीय लिङ्गपरामर्शोऽनुमितौ
करणम्, तस्यानुमितिहेतुत्वाऽसिद्ध्या तत्करणत्वस्य दूरनिरस्तत्त्वात् । ___ व्याप्तिज्ञान अनुमिति का करण हैं। व्याप्तिज्ञान का संस्कार अवांतर व्यापार हैं। तीसरा लिंग परामर्श अनुमिति का करण नहीं हैं। क्योंकि, उसमें अनुमिति की हेतुता (कारणता) ही असिद्ध हैं। इसलिए 'असाधारणकारणत्वरुप करणत्व' ऐसा करण का लक्षण अत्यंत दूषित होता हैं । ___ यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, नैयायिक लिंगपरामर्श को (व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता (-हेतु पक्ष में हैं) ऐसे तृतीय ज्ञानरुप लिंगपरामर्श को) अनुमिति के करण के रुप में बताते हैं। उनसे विपरीत वेदांती बताते है कि, लिंगपरामर्श अनुमिति का करण नहीं हैं, परन्तु व्याप्तिज्ञान ही अनुमिति का करण हैं । वेदांती अपना मत बताते है कि, अन्वयव्यतिरेक के अनुरोध से व्याप्तिज्ञान और अनुमिति के प्रति ही कार्यकारणभाव सिद्ध होता हैं । परन्तु अन्वयव्यतिरेक के अनुरोध से लिंगपरामर्श और अनुमिति के बीच कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता हैं। कहने का आशय यह हैं कि, वेदांतीयों के मतानुसार नैयायिको को मान्य लिंगपरामर्श ही अनुमिति के प्रति करण नहीं हैं। क्योंकि पक्षधर्मता ज्ञान से (पर्वत के उपर धूम के ज्ञान से) महानस में गृहीत व्याप्तिज्ञान का संस्कार उबुद्ध (जाग्रत) होता हैं, तदनन्तर व्याप्ति का स्मरण होने से वह्नि की अनुमिति होती हैं । परंतु लिंगज्ञान या पक्षधर्मता ज्ञान होने पर भी यदि व्याप्ति का स्मरण न हो तो अनुमिति नहीं होती हैं । इस अन्वय-व्यतिरेक के (संस्कार जाग्रत होने से यदि व्याप्तिस्मरण हो तो अनुमिति होती हैं इस अन्वय और संस्कारोबोधक के अभाव में अनुमिति नहीं होती हैं इस व्यतिरेक के) अनुरोध से अनुमिति में व्याप्तिज्ञान ही कारण हैं, "परामर्श" अनुमिति में करण नहीं हैं, यह सिद्ध होता हैं। क्योंकि "परामर्शसत्त्वे अनुमितिः परामर्शाभावे अनुमित्यभावः" इस प्रकार का अन्वय-व्यतिरेक देखने को मिलता नहीं हैं। क्योंकि, जब पक्षधर्मता ज्ञान और व्याप्तिज्ञान के कारण ही अनुमिति होती हैं, तब परामर्श के बगैर भी अनुमिति होती दिखाई देती हैं। इस कारण से व्यतिरेक व्यभिचार आने का संभव हैं। इसलिए परामर्श को अनुमिति का लक्षण नहीं कहा जा सकता। ___ विशेष में, महानस में जो व्याप्तिज्ञान हुआ था, उसके संस्कार अंतःकरण के उपर रहते हैं, उस अंत:करण के उपर रहनेवाले व्याप्तिज्ञान के संस्कार ही मध्यवर्ती व्यापार हैं। इसलिए व्याप्तिसंस्कार द्वारा अनुमिति में करण होता हैं।
यहाँ दूसरी एक बात भी याद रखें कि, वेदांती जैसे लिंगपरामर्श को करण के रुप में स्वीकार करते नहीं हैं, वैसे ज्ञायमान लिंग (हेतु) को भी अनुमिति प्रति करण मानते नहीं हैं। क्योंकि ज्ञायमान लिंग को ही यदि अनुमिति का करण माना जाये तो 'पर्वतो वह्निमान् भविष्यद् धूमात् ' आदि स्थानो में सभी को अनुमिति होती हैं, वह नहीं हो सकेगी। क्योंकि, वर्तमान में वहाँ लिंग नहीं हैं।
• व्याप्ति का स्वरुप :- व्याप्तिश्च अशेषसाधनाश्रयाश्रित-साध्य-सामानाधिकरण्यरुपा । सा च व्यभिचारादर्शने सति सहचारदर्शनेन गृह्यते । तच्च सहचारदर्शनं भूयोदर्शनं सकृद्दर्शनं वेति विशेषो नादरणीयः सहचारदर्शनस्यैव प्रयोजकत्वात् । (वेदांत परि.)
अर्थ : सारे साधनो का जो आश्रय, तदाश्रित जो साध्य, उसके साथ हेतु का जो सामानाधिकरण्य वह व्याप्ति हैं। (जैसे कि, समस्त साधन धूम, उसका आश्रय पर्वत आदि, उसका आश्रित वह्नयादि साध्य, उस साध्य के साथ
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