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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
ही हैं। ऐसी परिस्थिति में "अबाधितार्थकत्व" रुप विशेषण संसर्ग में कभी भी संभवित होगा ही नहीं। इसलिए पूर्वोक्त लक्षण (८६)असंभव दोष से दूषित हैं।
इसका समाधान यह हैं कि, घटादि पदार्थो में पारमार्थिक सत्तारुप से बाधितत्व होने पर भी व्यावहारिक प्रामाण्य अबाधित ही हैं। क्योंकि, 'बाधित' शब्द से व्यवहारकालीन बाध ही विवक्षित हैं। शब्द (आगम) प्रमाण का अन्य किसी प्रमाण में अंतर्भाव होता नहीं हैं, परन्तु यह स्वतंत्र प्रमाण हैं वह वेदांतपरिभाषा से जान लेना। अब आकांक्षाादि का लक्षण और आकांक्षादि पदो के अर्थो की विचारणा आगे बताते हैं ।
• आकांक्षा :
तत्र पदार्थानां परस्पर-जिज्ञासा-विषयत्व-योग्यत्वमाकाङ्क्षा । क्रियाश्रवणे कारकस्य कारकश्रवणे क्रियायाः करणे श्रवणे इतिकर्तव्यतायाश्च जिज्ञासाविषयत्वात् । (वे.प.-आ.परि)
- आकांक्षादि चार में आकांक्षा का स्वरुप इस अनुसार से हैं - पदार्थो की परस्पर जिज्ञासा में विषय होने की योग्यता को आकांक्षा कहा जाता हैं । जैसे कि, क्रिया (क्रियापद) सुनने पर कारक पद की और कारक पद को सुनने पर क्रिया (क्रियापद) की तथा करण के श्रवण में इतिकर्तव्यता की आकांक्षा होती हैं। क्योंकि, परस्पर जिज्ञासा का विषय बनता हैं । कहने का आशय यह हैं कि, दो या दो से अधिक पदो में से एक पद श्रवण होने से उसके ज्ञान के लिए पास में रहे हुए दूसरे पद के ज्ञान की अपेक्षा होती हैं । और उस दूसरे पद को प्रथम पद या अन्य पदों की अपेक्षा होती हैं। ऐसी परस्पर अपेक्षा की योग्यता जिन पदो में रहती हैं, उन पदो को साकांक्ष शब्द कहा जाता हैं। जैसे कि, 'गामानय'- गाय को लाओ। इस वाक्य में 'गाम्' और "आनय' ये दो पद हैं। वैसे ही "आनय" दूसरे पुरुष एकवचन की क्रिया का "त्वं" कर्ता भी अर्थतः ही प्राप्त होता हैं। इस तरह से तीन पदो में से "आनय" पद को बोलने पर क्या लाये और कौन लाये ? यह आकांक्षा उत्पन्न हो जाती हैं। अर्थात् 'आनय' क्रिया को 'गाम्' और "त्वम्" इस कारको की अपेक्षा होती हैं। उसी तरह से "गाम्'' यह कर्म कारक को 'आनय' क्रिया की अपेक्षा होती हैं। ___ "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत'' स्वर्ग की कामनावाला दर्श- पूर्णमास याग करे । इस श्रुति वाक्य से दर्शपूर्णमासयाग, स्वर्ग का करण (साधन) हैं, ऐसा ज्ञान होने से "कथम्" - दर्शपूर्णमासो से स्वर्ग किस प्रकार सिद्ध होता हैं ? इस प्रकार की 'इतिकर्तव्यता' की आकांक्षा होती हैं। अर्थात् "इतिकर्तव्यता" जिज्ञासा का विषय होता हैं । और उस आकांक्षा की निवृत्ति 'समिधो यजति' 'इडो यजति'- “समिध् यागादि प्रयाज' और "अनुयाजादि" से दर्शपूर्णमास याग को करे, आदि वाक्यो से होता हैं। इस तरह से क्रिया को कारक की, कारक को क्रिया की और करण को "इतिकर्तव्यता'' की परस्पर जिज्ञासा होने से योग्यता होना अर्थात् ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न करानेवाले पद वाक्य में होना उसको (८७)आकांक्षा कहा जाता हैं। - • योग्यता :- योग्यता च तात्पर्यविषयीभूत-संसर्गाबाधः । वह्निना सिञ्चतीत्यादौ तादृशसंसर्गबाधान्न योग्यता । (वे.प.-आ.परि) __ अर्थ :- वाक्य के तात्पर्यविषयीभूत संसर्ग का (कर्मत्वादि संबंध का) बाध न होना-यह योग्यता का लक्षण
(८६) लक्ष्यमात्रावृत्तित्वम् असंभव :। (८७) वेदांतीओं ने आकांक्षा का जो लक्षण दिया है, वह पूर्वमीमांसको को भी मान्य हैं। नैयायिको का "येन विना यस्यान्वयाननुभावकत्वं तत्त्वमाकांक्षा'' इस आकांक्षा का लक्षण वेदांतीयो को मान्य नहीं हैं।
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