________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
३६३
अंतःकरण जब चैतन्य का विशेषण रहता हैं, तब (चैतन्य) "जीव" कहा जाता हैं और अंतःकरण जब चैतन्य की उपाधि रहती हैं, तब उसको जीव का साक्षित्व प्राप्त होता हैं। अर्थात् अंतःकरण के विशेषणत्व और उपाधित्व के कारण “जीव" और "जीवसाक्षि" ऐसे भेद होते हैं।
प्रश्न : विशेषण और उपाधि में क्या अन्तर हैं ? उत्तर : विशेषण और उपाधि दोनों व्यावर्तक और वर्तमान होते हैं । अर्थात् "वर्तमानत्व और व्यावर्तकत्व" दोनों धर्म विशेषण और उपाधि में समानतया रहते हैं। परन्तु विशेषण कार्यान्वयी होते हैं और उपाधि कार्यान्वयी नहीं होती हैं। जैसे कि, “रुपविशिष्ट (रुपविशेषणसे युक्त) घट अनित्य हैं।" इसमें "रुप' विशेषण हैं। क्योंकि "घट" उससे युक्त हैं। परंतु "कर्णशष्कुलि से अवच्छिन्न (महाकाश से पृथक्) आकाश श्रोत्र हैं'। यहाँ "कर्णशष्कुलि" उपाधि हैं। "रुप' घट से सम्बद्ध रहने के कारण विशेषण हैं, परन्तु आकाश कर्णशष्कुलि से सम्बद्ध नहीं हैं, क्योंकि, निरवयव आकाश और सावयव कर्णशष्कुलि दोनों में संबंध का संभव नहीं हैं। इसलिए ही "कर्णशष्कुलि'' उपाधि हैं, विशेषण नहीं हैं । घट जिस तरह से रुप से विशिष्ट रहता हैं, उस तरह से कर्णछिद्र कान से विशिष्ट नहीं हैं। मूल में 'कार्यान्वयी' और 'कार्यानन्वयी' शब्द हैं। उसमें से "कार्य" पद का अर्थ अवच्छेद्य (अन्वय योग्य) हैं। अवच्छेद्य से संबद्ध होने योग्य घटादि पदार्थ हैं।
"रुपविशिष्ट घट" यहाँ 'रुप' को घट पदार्थ से अन्वयित्व, व्यावर्तकत्व और वर्तमानत्व होने से "विशेषणत्व'' हैं । और "कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न आकाश" यहाँ कर्णशष्कुलि पद के कार्य से अनन्वयित्व, व्यावर्तकत्व और वर्तमानत्व होने से उपाधित्व हैं । वेदांती की इस उपाधि को ही नैयायिक (८२)परिचायक कहते हैं।
अब "जीवसाक्षी' के प्रसंग में अंतःकरण में उपाधित्व किस तरह से बनता हैं, उसे कहते हैं(८२ प्रकृते चान्तः करणस्य जडतया विषयभासकत्वायोगेन विषयभासकचैतन्योपाधित्वम् । अयं च जीवसाक्षी प्रत्यात्मं नाना । एकत्वे मैत्रावगते चैत्रस्याप्यनुसन्धानप्रसंगः । __ भावार्थ:- प्रकृत प्रसंग में अंतःकरण को जड होने के कारण उसमें विषयावभासकत्व का योग नहीं हो सकता हैं। इसलिए अन्तःकरण में विषयावभासक चैतन्य का उपाधित्व हैं। यह जीवसाक्षिचैतन्य प्रत्येक आत्मा में भिन्नभिन्न हैं । प्रत्येक प्रमाता का साक्षि-चैतन्य यदि भिन्न-भिन्न माना न जाये तो मैत्र को अवगत हुआ पदार्थ चैत्र को भी अनुसंधान होने लगेगा।
कहने का आशय यह हैं कि, यहाँ शंका उपस्थित हो सकती है कि, कर्णशष्कुली को उपाधि कहना तो उचित हैं । परन्तु अंतःकरण को "जीवसाक्षिचैतन्योपाधित्व" कहना प्रयोजन शून्य (व्यर्थ) हैं। क्योंकि, प्रमाता
१) परिचायकत्वं तदघटकत्वे सत्यर्थविशेषज्ञापकत्वम । लक्षणाघटकत्वे सति लक्षणघटकपदार्थज्ञापकत्वं परिचायकत्वम (श्री गदाघर भट्टाचार्य विरचित अवयव प्रकरणम् - भावबोधिनी) (८२) जीवपक्षे अन्त:करणं विशेषणम् साक्षिपक्षे तु उपाधिः, अत्र किं कारणम् ? शुद्धचैतन्यं निर्विकारं भवति, चेतनानधिष्ठितं केवलमन्तः करणं जडं भवति, तस्मात् केवलमन्तःकरणं जडं भवति, तस्मात् कर्तृत्वलक्षणजीवत्वान्वयासम्भवेऽपि अन्योन्य-तादात्म्यापन्नयोस्तयोः जीवत्वान्वये बाधकाभावात् अन्त:करणस्य स्वान्वितचैतन्यांशे विधेयेन जीवत्वेन अन्वयाद् वर्तमानत्वाद् व्यावर्तकत्वाच्च विशेषणत्वं युक्तम् । किन्तु साक्षिपक्षे अन्तःकरणस्य विशेषणत्वं नैव युक्तम् । विषयावभासकत्वं हि साक्षित्वम् । न चान्तःकरणस्य तयुज्यते जडत्वाद् विकारित्वाच्च तस्य । तथा च विवरणकारा: "सर्वं वस्तु ज्ञाततया अज्ञाततया वा साक्षिचैतन्यस्य विषय एव । तस्मात् स्वान्वितचैतन्यांशे विधेयेन साक्षित्वेन अन्तःकरणस्य अन्वयाभावात् तस्योपाधित्वं युक्तम् । (वेदांत परिभाषा-चौखम्बा, पृ-८७, ८८, टिप्पनकम्)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org