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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
इस तरह से प्रकृति अव्यक्त और सूक्ष्म होने से उसकी उपलब्धि होती नहीं है। इसलिए उसका अभाव मानने की आवश्यकता नहीं है । उसकी उपलब्धि अनुमान से होती है। कोई भी कार्य हो तो उसका कारण भी होना चाहिए । व्यक्त पदार्थ कार्य है। इसलिए सांख्य के सत्कार्यवाद के अनुसार से वे सबका मूलरुप ऐसी प्रकृति होनी चाहिए, ऐसा सिद्ध होता है । यह व्यक्त कार्य कुछ अंश से कारण ऐसी अव्यक्त प्रकृति के साथ साम्य रखता है और कुछ अंश से वैधर्म्य भी रखता है।
अब सांख्यदर्शन का महत्त्वपूर्ण सत्कार्यवाद का सिद्धांत का कारिकाकार प्रतिपादन करते
असद्करणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाश्च सत्कार्यम् ॥९॥
अब कारिकाकार कारणरुप अव्यक्त और कार्यरुप व्यक्त का गुण बताते है
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हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् ।
सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं, विपरीतमव्यक्तम् ॥१०॥
कारिका - ९ में सांख्य के सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए पाँच कारण दीये है। वे आगे विस्तार से बताए हुए है। इसलिए यहाँ बताते नहीं है । अर्थ स्पष्ट है।
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कारका - १० में व्यक्त और अव्यक्त का स्वरुप बताया गया है यह भी आगे आ गया है । वहाँ से देख लेना । त्रिगुणमविवेकी विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि ।
व्यक्तं तथा प्रधानं तद्यिपरीतस्तथा च पुमान् ॥११॥
व्यक्त और प्रधान (ये दोनो) तीन गुण से युक्त, अविवेकी, विषय, सबको उपलब्ध, अचेतन और प्रसवधर्मि है। पुरुष इससे उलटा (विपरीत) है ( कारिका - ११) । कहने का मतलब यह है कि व्यक्त और प्रधान नीचे के धर्मोवाले है।
(१) त्रिगुणम् : अव्यक्त (प्रकृति) सत्त्व, रजस् और तमस्, ये तीन गुणो से युक्त है। सांख्यमत अनुसार से ये गुण किसीके धर्म नहीं है | परंतु सुखादि धर्मवाला धर्मी है । यह समस्तजगत इन तीन गुणो का ही विस्तार है । इसके विषय में आगे बहोत कहा गया है। 1
(२) अविवेकी : विवेक यानी विभिन्नतत्त्वो के बीच का भेद स्पष्ट करना वह और यह विवेक जिसमें हो उसे विवेकी कहा जाता है। प्रधान और व्यक्त में ऐसे प्रकार का विवेक संभव नहीं है। दोनो कारण कार्य संबंध से युक्त है। और सत्कार्यवाद अनुसार से दोनो एकदूसरे से नितान्त भिन्न हो सके वैसा नहीं है। वैसे महदादि अपने को प्रधान से बिलकुल भिन्नरुप से ग्रहण कर सके वैसा नहीं है। और प्रधान खुद भी अपने को अलग कर सके ऐसा नहीं है । इसलिए इस अर्थ में दोनो अविवेकी है।
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विवेक चेतन का धर्म है। प्रधान और व्यक्त, ये दोनो अचेतन होने से विवेक कर सके वैसा नहीं है। इसलिए अविवेकी है। श्री वाचस्पति मिश्र अविवेकी का एक दूसरा भी अर्थ देते है । महत् इत्यादि अकेला स्वयं कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकता है। वे सब साथ मिलकर ही क्रिया कर सकते है । और इस तरह से वे परस्पर में मिले हुए होने से अविवेकी है।
(३) विषय : दोनो, ज्ञान के विषय हो सकते है ।
(४) सामान्य : सर्व के ज्ञान के विषय हो सकने के कारण सर्वसाधारण होने से सामान्य है ।
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