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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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प्राप्ते शरीरभेदे चरितार्थत्वात् प्रधानविनिवृत्तौ।
ऐकान्तिकमात्यन्तिकमुभयं कैवल्यमाप्नोति ॥१८॥ भावार्थ : (बाद में) शरीर छुट जाने से प्रयोजन पूर्ण हुआ होने से प्रकृति (प्रवृत्ति में से) निवृत्त होती है और इसलिए (पुरुष) एकान्तिक और आत्यन्तिक ऐसा उभय प्रकार का कैवल्य प्राप्त करता है।
व्याख्या : ग्रन्थ के आरम्भ में कारिकाकार ने दुःखत्रय की ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक निवृत्ति को ही ग्रन्थ का प्रयोजन बताया था। उसी का प्रस्तुत कारिका में प्रतिपादन किया गया है। शरीरभेद से अभिप्राय यहाँ प्रारब्धकर्मों के संस्कारों की समाप्ति पर होनेवाले शरीर-पात से है। इससे पूर्व तत्त्वज्ञान के कारण प्रकृति, पुरुष के भोग-अपवर्ग रूप सृष्टिप्रयोजन की सिद्धि होने से, सष्टिरुप कार्य से विरत हो जाती है। __ अतः अव्यक्त प्रकृति के विरत होने के कारण आगे का सृष्टिकार्य अवरुद्ध हो जाता है और पूर्वजन्मों में किए गए कर्मो को स्थूलशरीर द्वारा भोग लेने से समाप्ति हो जाती है। तदनन्तर तत्त्वज्ञानी का शरीरपात हो जाता है और उसके त्रिविध दुःखो की ऐकान्तिक (निश्चित रूप से) आत्यन्तिक (हमेशां के लिए) समाप्ति हो जाती है। इस प्रकार यही पुरुष का ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक स्वरूप वाला दो प्रकार का कैवल्य अर्थात् मोक्ष होता है।
अवतरणिका : इस प्रकार सांख्य के तत्त्वों का विस्तृत विवेचन करने के बाद इस ज्ञान की परम्परा का कथन करते हुए अगली कारिका को उद्धृत करते है -
पुरुषार्थज्ञानमिदं गुह्यं परमर्षिणा समाख्यातम् ।
स्थित्युत्पत्तिप्रलयाश्चिन्त्यन्ते यत्र भूतानाम् ॥६९॥ भावार्थ : जिस (ज्ञान) में प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय (आदि तत्त्व) विचार किए जाते है (ऐसा गूढ, पुरुष के प्रयोजन (मोक्षरूप फल को प्रदान करनेवाला यह ज्ञान ऋषियों में मूर्धन्य (महर्षि कपिल) ने भली प्रकार (विस्तार से) कहा।
विशेषार्थ : यह सांख्यशास्त्रीयज्ञान जिसकी चर्चा प्रस्तुत ग्रंथ सांख्यकारिका में विस्तार से इससे पूर्व की कारिकाओं में की गई है, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय इत्यादि गूढतत्त्वों का चिन्तन किया गया है। जो सामान्य व्यक्ति के लिए गूढ होने के कारण अत्यन्त दुर्बोध है तथा जो पुरुष के मुख्य प्रयोजन मोक्षरूप फल को प्रदान करनेवाला है।
इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त इस ज्ञान की तत्त्वज्ञानी, ऋषियों में अग्रणी, महर्षि कपिल ने सृष्टि के आदिकाल में अत्यन्त विस्तृत रूप से व्याख्या की थी। यद्यपि यहाँ नाम से उनका उल्लेख नहीं हुआ है, तथापि श्री कपिल मुनि को ही सांख्य का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है । इस दृष्टि से 'कपिल' अभिप्राय ही ग्रहण करना चाहिए।
अवतरणिका : सांख्यज्ञान की श्री कपिल मुनि के बाद भी परम्परा का कथन करने के लिए अग्रिम कारिका का उल्लेख करते है -
एतत् पवित्रमयं मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ ।
आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन बहुधा कृतं तन्त्रम् ॥७०॥ भावार्थ : यह पवित्र (और) श्रेष्ठ (ज्ञान) (कपिल) मुनिने कृपापूर्वक आसुरि को प्रदान किया । आसुरिने भी पञ्चशिखाचार्य को (दिया) और उस (पञ्चशिख)ने इसका अनेक प्रकार से विस्तार किया।
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