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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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सत्यकामनावाले हैं। और वे ईश्वर (सर्व के नियन्ता) हैं। वैसे ही यह महाविष्णु, महाशक्तिमान् और अतिशय महान हैं। उपरांत, सर्वज्ञत्व और ईश्वरत्व आदि धर्मो का कारण होने से महाबुद्धिशाली भी इस ईश्वर के शरीर को "कारण शरीर" कहते है, जो सत्त्वगुण से वृद्धि पाया हुआ समष्टि अज्ञान हैं, उसमें आनंद प्रचुर है और कोशकी (खजाने की) तरह वह आनंद को सिद्ध करनेवाला है, इसलिए उसको ईश्वर का "आनन्दमय कोश" भी कहते हैं। तदुपरांत, वह सर्व जीवो के उपशम का कारण हैं, इसलिए उसको सुषुप्ति कहते है, जिसमें प्राकृत प्रलय होता हैं, ऐसा श्रुतिया बारबार सुनाती हैं।"
यहाँ उल्लेखनीय है कि, केवलाद्वैत वेदांत में ईश्वर की सत्ता पारमार्थिक नहीं हैं । क्योंकि, ईश्वर अज्ञानोपहित है और अज्ञान पारमार्थिक सत्ता नहीं हैं। इसलिए ईश्वर की भी पारमार्थिक सत्ता नहीं हैं। जब कि, 'विशिष्टाद्वैत', मतवाले ईश्वर की सत्ता पारमार्थिक मानते हैं (केवलाद्वैत और विशिष्टाद्वैत का मान्यताभेद आगे बताया जायेगा )
वेदांत के उत्तरोत्तर विकसित सिद्धांतो में अवच्छेदवाद और प्रतिबिंबवाद महत्त्व के सिद्धांत हैं । (उन दोनो का स्वरुप आगे बताया जायेगा ।) अवच्छेदवाद में माया से ढके हुए ब्रह्म को ईश्वर माना गया हैं और प्रतिबिंबवाद में माया में प्रतिबिंबित हुए ब्रह्म को ईश्वर माना हैं । इस ईश्वर का अस्तित्व अद्वैतवेदांतीयों ने श्रुति के अनुसार माना है और दूसरे प्रमाणो से ईश्वर को सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया हैं। श्रीशंकराचार्य बताते है कि, जैसे कोई जादूगर दूसरों को अपने जादू से आकर्षित करता है, फिर भी वह स्वयं उस जादू से लेशमात्र भी प्रभावित नहीं होता हैं। वैसे ईश्वर अपनी माया से अस्पृष्ट रहते हैं। यह सृष्टि भी आप्तकाम ईश्वर के स्वभाव का फल हैं । (पूर्वोक्त दो वाद उपरांत तीसरा "आभासवाद" भी है, उसका विवेचन आगे करेंगे)
ईश्वर और जीव :- (केवलाद्वैत मत में) ईश्वर और जीव दोनों व्यावहारिक सत्ता हैं । परन्तु ईश्वर नियन्ता है और जीव शासित हैं । ईश्वर माया के शुद्ध सत्त्व से युक्त है, जीव माया की निकृष्ट उपाधि (शरीर-मन आदि) से युक्त हैं, इसलिए ही शांकरभाष्य में कहा है कि,
"निरतिशयोपाधिसम्पन्नश्च ईश्वरो हीनोनोपाधिसम्पन्नान् जीवान् प्रशास्ति' (शां.भा.) __उपरांत, दोनो के बीच स्वामी-सेवक संबंध है, जैसे ताप (उष्णता) अग्नि और स्फुलिंग दोनो में समान रहता हैं, वैसे ईश्वर और जीव दोनों में विशुद्ध चैतन्य समान रहता हैं। दोनो में ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्ता हैं। जब वह चैतन्य विशुद्धसत्त्वप्रधान हो जाता है, तब ईश्वर और जब मलिनसत्त्वप्रधान हो जाता है, तब वह जीव होता हैं। दोनों भी ब्रह्म के ही स्वरुप हैं । जीव भी पूर्ण ब्रह्म हैं । शांकरभाष्य में कहा हैं कि - "सर्वेषामेव नामरुपकृतकार्यकारणसंघातप्रविष्टानां जीवानां ब्रह्मत्वमाहुः॥"
वेदांतसार में इसी विषय को स्पष्ट करते हुए बताया है कि, ईश्वर और जीव के बीच फर्क स्पष्ट है। समष्टि अज्ञान से उपहित चैतन्य को ईश्वर कहा जाता है और व्यष्टि अज्ञान से उपहित चैतन्य को जीव कहा जाता है। दोंनो में "चैतन्य" समान होने पर भी विशेषण की दृष्टि से दोनों में भिन्नता हैं। विशेषण की भिन्नता के कारण उन दोनों के गुणधर्मो की भिन्नता खड़ी होती हैं । ईश्वर की उपाधि शुद्धसत्त्वगुण प्रधान है, जब कि जीव की उपाधि मलिनसत्त्वप्रधान है। इस तरह से ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वनियन्ता है, दुःखादि अनुभव से रहित और पुण्य-पाप से पर हैं। ईश्वर भोक्ता नहीं है, केवल साक्षी हैं। जीव कर्म में रत और फल का भोक्ता है, जीव अल्पज्ञ और संसारी हैं।
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