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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
अध्यासदोषात्समुपागतोऽयं संसारबंधः प्रबलःप्रतीचः । यद्योगतः क्लिश्यति गर्भवासजन्माव्ययक्लेशभयैरजस्त्रम् ॥४९६॥ अध्यासो नाम खल्वेष वस्तुनो योऽन्यथाग्रहः । स्वाभाविक भ्रान्तिमूलं संसृतेरादिकिारणम् ॥४९७॥ सर्वानर्थस्य तद्बीजं योऽन्यथाग्रहः आत्मनः । ततः संसारसंपात्तः संततक्लेशलक्षणः ॥४९८॥
भावार्थ :- इस अध्यास के दोष से ही प्रत्यगात्मा को इस संसाररुप प्रबल बंधन आया हैं। जिसके कारण गर्भवास, जन्म, मरण इत्यादि क्लेश के भय से वह निरंतर दुःख का अनुभव करता हैं । जो वस्तु जिस स्वरुप में हो, उसको उससे विपरीत स्वरुप में ग्रहण करना उसे अध्यास कहा जाता हैं । यह अध्यास स्वाभाविक भ्रान्ति का मूल हैं और संसार का प्रथम कारण हैं।
आत्मा रुप (सत्य) वस्तु को उससे भिन्न (असत्) स्वरुप में ग्रहण करना यह अध्यास तो सर्व अनर्थो का बीज हैं, उससे ही क्लेशो के परंपरा रुप लक्षणवाले इस संसार में गिरना होता हैं।
आगे ज्यादा स्पष्टता करते हुए बताया हैं कि -
अध्यासादेव संसारो नष्टेऽध्यासे न दृश्यते । तदेतदुभयं स्पष्टं पश्य त्वं बद्धमुक्तयोः ॥४९९॥ बद्धं प्रवृत्तितो विद्धि मुक्तं विद्धि निवृत्तितः । प्रवृत्तिरेव संसारो निवृत्तिर्मुक्तिरिष्यते ॥५००॥ आत्मनः सोऽयमध्यासो मिथ्याज्ञानपुरःसरः । असत्कल्पोऽपि संसारं तनुते रज्जुसर्पवत् ॥५०१॥ उपाधियोगसाम्येऽपि जीववत्परमात्मनः । उपादिभेदान्नो बंधस्तत्कार्यमपि किंचन ॥५०२॥ अस्योपाधिः शुद्धसत्त्वप्रधाना माया यत्र त्वस्य नास्त्यल्पभावः । सत्त्वस्यैवोत्कृष्टता तेन बंधो नो विक्षेपस्तत्कृतो लेशमात्रः ॥५०३॥ सर्वज्ञोऽप्रतिबद्धबोधविभवस्तेनैव देवः स्वयं मायां स्वामवलम्ब्यं निश्चलतया स्वच्छंदवृत्तिः प्रभुः । सृष्टिस्थित्यत्यदनप्रवेशयमनव्यापारमात्रेच्छया च या कुर्वन्क्रीडति तद्रजस्तम उभे संस्तेभ्य शक्त्या स्वया ॥५०४॥ तस्मादावृतिविक्षेपौ किंचित्कर्तुं न शक्नुतः । स्वयमेव स्वतंत्रोऽसौ तत्प्रवृत्तिनिरोधयोः ॥५०५॥ तमेव सा धीकर्मेति श्रुतिर्वक्तिः महेशितुः । निग्रहानुग्रहे शक्तिरावृतिक्षेपयोर्यतः ॥५०६॥ राजसस्तमसश्चैव प्राबल्यं सत्त्वहानतः । जीवोपाधौ तथा जीवे तत्कार्यं बलवत्तरम् ॥५०७॥ तेन बंधोऽस्य जीवस्य संसारोऽपि च तत्कृतः । संप्राप्तः सर्वदा यत्र दुःखं भूयः स ईक्षते ॥५०८॥ एतस्य संसृतेर्हेतुरध्यासोऽर्थविपर्ययः । अध्यासमूलमज्ञानमाहुरावृतिलक्षणम् ॥५०९॥ अज्ञानस्य निवृत्तिस्तु ज्ञानेनैव न कर्मणा । अविरोधितया कर्म नैवाज्ञानस्य बाधकम् ॥५१०॥ कर्मणा जायते जंतुः कर्मणैव प्रलीयते । कर्मणः कार्यमेवैषा जन्ममृत्युपरंपरा ॥५११॥
भावार्थ :- अध्यास से ही संसार दिखाई देता हैं, परन्तु अध्यास नाश होते ही वह संसार दीखता ही नहीं हैं। उन दोनों को संसार में बंधे हुए पुरुषो में और संसार से मुक्त हुए पुरुषो में तुम स्पष्ट देख सकते हो । पुरुष को प्रवृत्ति से बंधा हुआ जानना और निवृत्ति से मुक्त समजना। प्रवृत्ति यही संसार हैं और निवृत्ति यही मोक्ष हैं। आत्मा का यह अध्यास मिथ्याज्ञान को आगे करके ही हुआ हैं। वह असत् प्रायः हैं - ज्यादातर जूठा हैं। फिर भी रस्सी में दिखते हुए सर्प की तरह संसार का विस्तार करता हैं । जीव की तरह परमात्मा को उपाधि का संबंध समान होने पर भी उन दोनो की उपाधि में से परमात्मा की उपाधि में बहोत फरक हैं। इसलिए परमात्मा को बंधन नहीं हैं और उसका कोई कार्य भी नहीं हैं। शुद्धसत्त्वगुण जिसमें मुख्य हैं, ऐसी माया परमात्मा की उपाधि हैं, जिसमें परमात्मा को अल्पता होती नहीं हैं, सत्त्वगुण की ही उत्कृष्टता रहती हैं, इसलिए बंधन नहीं हैं और उस माया ने किया हुआ लेशमात्र भी विक्षेप नहीं हैं।
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