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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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प्रकाशित होते हैं। इसलिए आश्रय और विषय को प्रकाशित करता साक्षी अज्ञान को भी प्रकाशित करता है, उसकी निवृत्ति नहीं करता हैं। अज्ञान की निवृत्ति करनेवाला तो अंत:करण की वृत्ति में प्रतिबिंबित चिदुरुप ज्ञान है और अज्ञान का विनाशक यह वृत्तिज्ञान, प्रकृत स्थल में नहीं हैं। इसलिए यहाँ "वदतो व्याघात" दोष किस तरह से होगा? माया-अविद्या की कुछ विशेषताएं :
(१) ईश्वर की शक्ति माया हैं, जिसके माध्यम से वह नानात्मक जगत् की रचना करते हैं। (२) ब्रह्म पूर्णतः स्वतंत्र है और माया ब्रह्म पर आश्रित हैं। माया की स्वतंत्र कोई सत्ता नहीं हैं। ब्रह्म से निकलकर, उसीमें समा जाती हैं। ब्रह्म और माया के बीच अगर कोई सम्बन्ध हो सकता हैं, तो वह तादात्म्य सम्बन्ध हैं। (३) माया भी अनादि हैं । (३९)इसी के माध्यम से जीव शुभाशुभ कर्मो को भोगने के लिए, बाध्य हो जाते हैं। माया के अनादि होने के दो कारण हैं - एक तो ब्रह्म की शक्ति हैं, दूसरा-सृष्टि के आदि में सक्रिय होना हैं और प्रलयकाल में, ब्रह्म में समा जाती हैं। माया के बिना परमेश्वर की सृष्टिक्रिया, सम्भव नहीं हो सकती(४०)। माया की एक ओर विशेषता है कि वह अनादि होते हुऐ सान्त हैं। उसकी सान्तता का अर्थ, अत्यन्ताभाव नहीं हैं, मात्र अवस्था का अन्तर हैं, उसकी जाग्रदवस्था सष्टि और सप्तावस्था प्रलय हैं। (४) ब्रह्म ही माया का आश्रय और विषय है, परन्तु माया के आश्रय देने पर भी ब्रह्म, उससे सर्वथा असंपृक्त तथा अप्रभावित रहता हैं(४१)। वस्तुत: मूलरुप में वह अक्षुण्ण बना रहता हुआ स्वयं नानात्मक विश्व को अनेकविध रुपों में, धारण करता है, यही ब्रह्म की महान् विशेषता हैं, तभी उपनिषद् अग्नि के विस्फुलिंग से जगत् की उत्पत्ति की तुलना करती हैं। (४२(५) माया भावरुपात्मिका है, भावरुपात्मिका का अभिप्राय, ब्रह्मसदृश, सत् नहीं है। यह वन्ध्यापुत्र जैसी पूर्णत: अभाविका भी नहीं हैं ४३)। विश्वसृष्टिकाल में भावात्मिका हैं, और प्रलयकाल में ब्रह्माश्रित होने के कारण अभावात्मिका बनी रहती हैं। (६) माया की आवरण एवं विक्षेप दो शक्तिया हैं। आवरण शक्ति से ब्रह्म के वास्तविक स्वरुप आवृत कर लेती है और विक्षेप शक्ति से नानात्मक प्रपंच की रचना करती हैं। जिस प्रकार रज्जु में सर्प की प्रतीति, आवरणशक्ति के द्वारा होती है और यह सर्प का फण हैं, यह पूंछ हैं, इत्यादि असत् कल्पना विक्षेपशक्ति के द्वारा होती हैं । (७) यह सांख्य की प्रकृति के सदृश, जड नहीं हैं और स्वतंत्र नहीं हैं। सांख्य की प्रकृति, पुरुष से सर्वथा स्वतंत्र रहती हैं । वस्तुतः माया निर्मूला नहीं है, उसका भी अधिष्ठान ब्रह्म ही हैं। अत एव प्रलयकाल में ब्रह्म में विलीन हो जाती हैं। यही अद्वैतता हैं। (८)माया का स्वरुप अर्निवचनीय हैं। ४४ । स्वतंत्र सत्ता के अभाव में, सत् नहीं हो सकती और जगत् प्रपंच की रचना करने में समर्थ होने के कारण, सर्वथा असत् भी नहीं हैं। (९) माया ज्ञान के द्वारा दूर की जा सकती हैं, अतः मिथ्यासदृश हैं । जैसे-जैसे हम ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते जाते हैं, वैसे वैसे यह दूर भागती जाती हैं । (१०) माया वस्तुरुप अधिष्ठान में अवस्तुरुप जगत् की प्रतीति कराती रहती हैं, अतः यह अध्यास स्वरुप हैं।
अज्ञान के एकत्व या अनेकत्व:अज्ञान या अविद्या को अद्वैत सम्प्रदाय में अनादि तथा भावरुप माना गया हैं। परन्तु अविद्या के एकत्व अथवा (३९) अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम् श्वेता. ३.४.५ (४०) न हि तया बिना परमेश्वरस्य स्रष्टत्वं सिद्धयति । अविद्यात्मिका हि बीजशक्ति: अव्यक्तशब्दनिर्देश्या परमेश्वराश्रया मायामयी महासुषुप्तिः यस्यां स्वरुपप्रतिबोधरहिताः शेरते संसारिणां जीवाः । ब्र.सू.शां.भा. १.४.३ (४१) यथा स्वयं प्रसारितया मायवी मायवी त्रिष्वपि कालेषु न संस्पृश्यते अवस्तुत्वात, एवं परमात्माऽपि संसारमायया न संस्पृश्यत इति ।-वहीं, (४२) यथाग्नेविस्फुलिङ्गा- बृ.उ.शा.भा. २.१.२० (४३) अज्ञानं तु सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधी भावरुपं यत्किञ्चिदिति वदन्त्यहमज्ञ इत्याद्यनुभवात् । वेदान्तसार-३४।(४४) तुच्छाऽनिर्वचनीया च वास्तवी चेत्यसौ त्रिधा। ज्ञेया माया त्रिभिर्बोधैः श्रौतयुक्तिलौकिकैः । पंचदशी-६,१३०
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