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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
इसका दूसरा नाम 'सलिल' भी है, क्योंकि जिस प्रकार बीज से अंकुर की उत्पत्ति में जल सहायक होता है। ठीक उसी प्रकार तत्त्वज्ञान के प्रति संन्यास सहायक होता है ।
३. काल : विवेक- ख्याति, संन्यास ग्रहण कर लेने मात्र से नहीं होगी, इसके लिए तुम्हें उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि समय आने पर सिद्धि अपने आप ही प्राप्त हो जाएगी। इसलिए तुम्हें व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार के उपदेश से होनेवाली तुष्टि को 'काल' संज्ञा दी गई है। इसी का दूसरा नाम 'औघ' भी है।
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४. भाग : यहां भाग से अभिप्राय 'भाग्य' से है। विवेक ज्ञान न तो प्रकृति से होता है, न संन्यास ग्रहण करने से और न ही समय की प्रतीक्षा से, अपितु यह तो एकमात्र भाग्य से होता है। मदालसा के पुत्रों को ही देखिए, भाग्य की प्रबलता से बाल्यावस्था में ही माता के उपदेश के द्वारा विवेकख्याति होने से मुक्त हो गए। इसलिए विवेक - ज्ञान में भाग्य ही मात्र कारण है, अन्य कोई नहीं, अतः इसके लिए प्रयास करना व्यर्थ है । इस प्रकार के उपदेश के द्वारा होनेवाली तुष्टि 'भाग' नामक तुष्टि कही गई है। इसी को 'वृष्टि' भी कहा जाता है ।
इन चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों का उल्लेख कारिका के पूर्वार्ध में किया गया। 'आत्मानम् अधिकृत्य जायमाना' व्युत्पत्ति की दृष्टि से ही इन्हें आध्यात्मिक कहा गया है। इन्हीं को आभ्यन्तर भी कहते है। अब हम पांच प्रकार की बाह्य तुष्टियों का उल्लेख करेंगे ।
(ख) बाह्य पाँच तुष्टियाँ : महत्, अहंकार आदि को ही आत्मा मानकर संसार से उपरक्त होना बाह्य तुष्टिं है। जिसे कारिका में 'विषयोपरमात्' के द्वारा कहा गया है। उपरम का अभिप्राय है- वैराग्य तथा विषय पद यहां शब्द आदि भोग्य पदार्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि इन तुष्टियों का सम्बन्ध बाह्य विषयों से है, इसी कारण इन्हें बाह्य तुष्टि के नाम से कहा जाता है। ये तुष्टि आत्मज्ञान के अभाव में अनात्मा के बाह्य विषयों में प्रवृत्त होने एवं उनके सम्बन्ध में वैराग्य होने पर होती है। शब्द आदि भोग्य विषयों की संख्या पाँच है। अतः उनसे सम्बन्धित वैराग्य भी पाँच प्रकार का होता है, जो विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय, भोग और हिंसा आदि के कारण उत्पन्न होता
। अब हम इनसे होनेवाली पाँच तुष्टियों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करते है ।
१. पार : सेवा आदि सभी प्रकार के उपाय अत्यन्त दुःख प्रदान करनेवाले है। यह विचारकर सांसारिक विषयों के प्रति उत्पन्न होनेवाली वैराग्यभावना से उत्पन्न होनेवाली तुष्टि 'पार' कहलाती है ।
२. सुपार : उपार्जित धन को राजा, चोर, अग्नि, बाढ आदि के द्वारा नष्ट होने की सम्भावना एवं उसकी रक्षा में होनेवाले अत्यधिक कष्ट को सोचकर विषयों के प्रति होनेवाले वैराग्य से होनेवाली तुष्टि को 'सुपार' कहा गया है।
३. पारापार : अत्यधिक परिश्रम से अर्जित किया गया भी धन भोग द्वारा नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार उसके विनाश का चिन्तन करनेवाले व्यक्ति को विषयों से वैराग्य होने पर होनेवाली तुष्टि 'पारापार' कही जाती है।
४. अनुत्तमाम्भस् : शब्द आदि सांसारिक भोगों को भोगने से कामनाएं बढ़ती है । पुनः उनके न मिलने पर दुःख (कष्ट) होता है । इस प्रकार भोगों में दोषों का चिन्तन करते हुए उनके प्रति वैराग्य होने के परिणामस्वरुप होनेवाली तुष्टि 'अनुत्तमाम्भस्' कहलाती है ।
५. उत्तमाम्भस् : प्राणियों को बिना कष्ट दिए उनकी हिंसा आदि के अभाव में किसी भी सांसारिक विषय का उपभोग सम्भव नहीं है। इस प्रकार सोचकर भोगों में हिंसा का दोष देखने के कारण विषयों के प्रति होनेवाले वैराग्य से होनेवाली तुष्टि ही उत्तमाम्भस् नामक तुष्टि मानी गई |
प्रत्ययसर्ग में विपर्यय, अशक्ति एवं तुष्टि की विस्तृत व्यख्या के बाद चतुर्थ भेद 'सिद्धि' का गौण और मुख्य भेदों के साथ विस्तृत परिचय प्रदान करने के लिए अग्रिम कारिका का अवतरण करते.
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