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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
इस कारिका के विषय में आगे कहा गया है। विशेष कहा जाता है। न्याय-वैशेषिको ने शब्द इत्यादि गुणो को माना और आकाश इत्यादि द्रव्यो में वह समवाय संबंध से रहता है ऐसा स्वीकार किया है । पृथ्वी इत्यादि द्रव्य प्रथम प्रकट होते है और बाद में उनके गुण आते है। ऐसा उनका मत है।
इस पाँच तन्मात्रा में से पाँच भूत किस तरह से उत्पन्न होते है, उसके विषय में टीकाकारो भिन्न भिन्न मत रखते है। श्री गौड मानते है कि प्रत्येक तन्मात्रा एक एक महाभूत को ही उत्पन्न करती है । शब्दतन्मात्रा में से आकाश, स्पर्श तन्मात्रा में से वायु, रुपतन्मात्रा में से तेज, रसतन्मात्रा में से जल और गंधतन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न होती है ।
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परंतु श्री वाचस्पति और श्री चन्द्रिका प्रत्येक महाभूत क्रमशः एक से ज्यादा तन्मात्रा के संयोग से बनता है, ऐसा मत प्रदर्शित करते है । इस तरह से शब्दतन्मात्रा में से आकाश; शब्द और स्पर्शतन्मात्रा में से वायु; शब्द, स्पर्श और रुप तन्मात्रा में से तेज; शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्रा में से जल और शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्रा में से पृथ्वी उत्पन्न होती है ।
इस संदर्भ में वेदान्तीयों की पंचीकरण पद्धति का भी परिचय कर लेना । उनके मत अनुसार से प्रत्येक महाभूतो पांच तन्मात्रा ये होती है । परन्तु उसमें एक तन्मात्रा मुख्य है । वे १/२ भाग रोकती है। और बाकी की तन्मात्राये १/८ भाग रोकती है I
अब प्रस्तुत कारिका में महद् (बुद्धि) तत्त्व का निरुपण करते है
"अध्यवसायो बुद्धिर्धर्मो ज्ञानं विरागं ऐश्वर्यम् ।
सात्त्विकमेतद्रुपं तामसमस्माद् विपर्यस्तम् ॥२३॥"
भावार्थ : निश्चय ही बुद्धि (महत्) का लक्षण है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य, ये उसका सात्त्विकस्वरुप है और उससे विपरित (अधर्म, अज्ञान, राग और अनैश्वर्य) यह उसका तामसरुप है।
सांख्यसूत्र में बुद्धि का लक्षण बांधते हुए कहते है कि " अध्यवसायो बुद्धिः ॥ २।१३ ॥ अध्यवसाय बुद्धि का लक्षण है और अध्यवसाय यानी निश्चय । यद्यपि निश्चय बुद्धि नहीं है। निश्चय यह बुद्धि का व्यापार है । निश्चय करना यह बुद्धि का कार्य है । निश्चय, यह वृत्ति अर्थात् धर्म है । और बुद्धि धर्मी है। यानी यहां बुद्धि को अध्यवसाय, धर्म-धर्मी के बीच होनेवाला अभेदोपचार से कहा गया है।
महान और बुद्धि, उपरांत उसके मति, ब्रह्मा, ख्याति, प्रज्ञा, सन्तति, स्मृति ऐसे भी नाम I
अब 'महत्' तत्त्व से उत्पन्न 'अहंकार' का लक्षण करके, उससे उत्पन्न पदार्थो का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्तुत कारिका है
“अभिमानोऽहङ्कारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः ।
एकादशकश्च गणस्तन्मात्रपञ्चकश्चैव ॥२४॥”
भावार्थ : अभिमान, यह अहंकार का लक्षण है। उसमें से दो प्रकार की सृष्टि का उद्भव होता है। (१) ग्यारह इन्द्रियो का समुदाय और (२) पाँच तन्मात्राये ।
बुद्धि का व्यापार निश्चय है, ऐसा देखा । इस निश्चय का कोई आधार भी होना चाहिए "मैंने यह निश्चय किया" । अथवा "मैं जानता हूँ" । इस तरह से ही वह हो सकता है। यह जो "मैं" रुप है, उसको अभिमान कहा जाता है। यह एक प्रकार की आत्मलक्षिता है और इस प्रकार की 'अस्ति' मतिवाला जो बुद्धि का प्रादुर्भूत रुप है, उसका ही नाम अहंकार है ।
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