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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
श्री वाचस्पति मिश्र ये दस प्रकार को आहार्य, धार्य और प्रकाश्य, इस प्रत्येक के संदर्भ में समजते है। उस अनुसार से कर्मेन्द्रियों का कर्तव्य आहरण है, इसलिए उसका कार्य उसके पांच विषय हुए। वे विषय दिव्य और मनुष्य दोनो के अलग अलग गिनने से दस होंगे। उसी तरह से अंत:करण के विषय ऐसे पंचप्राण कि जो धार्य है, वह भी दिव्य और मनुष्य के भेद से दस प्रकार के होगें और बुद्धीन्द्रियों के पाँच विषय कि जो प्रकाश्य है, वे भी दिव्य-मनुष्य भेद से दस प्रकार के होंगे। पूर्वोक्त विषय का वर्गीकरण प्रस्तुत करने के लिए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है -
अन्तःकरणं त्रिविधं दशधा बाह्यं त्रयस्य विषयाख्यम् ।
सांप्रतकालं बाह्यं त्रिकालमभ्यन्तरं करणम् ॥३३॥ भावार्थ : (मन, बुद्धि और अहंकार, इस प्रकार से) अंत:करण तीन प्रकार का है और पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय ऐसे बाह्यकरण दस प्रकार का है। बाह्यकरण, वह अंत: करण का विषय बनता है। बाह्यकरण का व्यापार वर्तमानकाल में ही है। अंतःकरण का व्यापार तीनो काल में होता है।
कारिका का भावार्थ स्पष्ट है । यहाँ इतना याद रखना कि सांख्यदर्शन में काल को और दिशा को स्वतंत्र पदार्थ नहीं माने गये । वैशेषिको ने काल को स्वतंत्र पदार्थ माना है। उनके मतानुसार काल एक है और उपाधि भेद से वह भूत-भविष्य-वर्तमान इत्यादि प्रकार से अनेक लगते है। परन्तु श्री वाचस्पति मिश्र कहते है कि काल स्वयं ही उपाधि है। पदार्थ नहीं है। इसलिए उसकी उपयोगिता केवल व्यावहारिक ही है, तात्त्विक नहीं है। ___ ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ रुप बाह्यकरण, जो केवल वर्तमान काल में स्थित विषयो को ग्रहण करती है। इनके विषयो का कथन करने के लिए अग्रिम कारिका का उल्लेख करते है -
बुद्धीन्द्रियाणि तेषां पञ्च विशेषाविशेषविषयाणि।
वाग् भवति शब्दविषया शेषाणि तु-पञ्चविषयाणि ॥३४॥ भावार्थ : (बाह्येन्द्रियो में से) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ विशेष (= पांच महाभूत) और अविशेष (= पांच तन्मात्रायें) विषयवाली है। (और पाँच कर्मेन्द्रियो में से) वाणी का विषय शब्द है । परन्तु अन्य चार (कर्मेन्द्रियां) पांचो विषयवाली है।
यहाँ श्री वाचस्पति और श्री गौड कहते है कि देवो तथा योगीयों के लिए तन्मात्रायें इन्द्रियाँ द्वारा प्रकट होती है और वे शान्त, घोर और मूढ भावरहित होती है। जबकि साधारण मनुष्यो के लिए वे स्थूल विषयो को प्रकट करती है और शांत इत्यादिक भावो से युक्त होती है। अब गौण-मुखभाव को बताने के लिए अग्रिम कारिका है -
सान्तःकरणा बुद्धिः सर्वं विषयमवगाहते यस्मात् ।
तस्मात् त्रिविधं करणं द्वारि; द्वाराणि शेषाणि ॥३५॥ भावार्थ : (मन और अहंकार ये दोनो) अंत:करण के साथ बुद्धि सर्वविषयो को ग्रहण करती है। इसलिए त्रिविध अंत:करण वह द्वारि (मुख्य है) और बाकी की इन्द्रियाँ द्वार (गौण) है। अब त्रिविध अंतःकरण में बुद्धि की प्रमुखता का प्रतिपादन करते हुए अगली कारिका का उल्लेख करते है।
एते प्रदीपकल्पाः परस्परविलक्षणा गुणविशेषाः।
कृत्स्नं पुरुषस्वार्थं प्रकाश्य बुद्धौ प्रयच्छन्ति ॥३६॥ भावार्थ : ये (मन और अहंकार सहित १२ इन्द्रियाँ) परस्पर विरुद्ध लक्षण और विशिष्ट गुणोवाली है। (फिर भी) दीपक की तरह ये करण पुरुष के संपूर्ण प्रयोजन को प्रकाशित करके बुद्धि को प्रदान करते है।
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